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________________ ४९.५ एकादश ग्रध्याय पदार्थ का संग्रह करता है, तो वह भी परिग्रही ही है । परिग्रह प्रासक्ति एवं तृष्णा में है । श्रौर श्रासक्ति एवं तृष्णा का कहीं अन्त नहीं है । शारीरिक शक्ति के क्षीण होने पर या वृद्ध अवस्था आने पर इन्द्रियें शिथिल हो जाती हैं, देखने-सुनने की शक्ति घट जाती है, परन्तु तृष्णा की प्राग उस समय भी प्रज्वलित रहती है । अन्तिम सांस के समय भी तृष्णा को आग जगमगाती रहती है । आचार्य शंकर ने कहा है- 'शरीर जर्जरित हो गया, सारे अंगोपांग शिथिल पड़ गए, बाल पक कर सफेद हो गए, मुँह के सभी दांत गिर गए, उक्त वृद्ध को अब केवल लकड़ी का हो सहारा रह गया। फिर भी वह तृष्णा का त्याग नहीं करता है । उस की आशा-आकांक्षा मरते. समय तक भी अपरिमित रहती है । इस तरह हम देखते हैं कि चाहे जितना द्रव्य मिल जाए फिर भी तृष्णा या आकांक्षा पूरी नहीं होती | यहां तक कि दुनिया भर का वैभव भी उसके लिए थोड़ा ही रहता है। भगवान महावीर के शब्दों में कहें तो ' स्वर्ण और चांदी के हज़ारों पर्वत खड़े कर लेने पर भी तृष्णा का अन्त नहीं होता, वह ग्रांकांश के समान ग्रनन्त है $ | हम छत पर खड़े हो कर देखते हैं कि अमुक स्थान पर प्रकाश और धरती मिल रहे हैं, पर वहां पहुंच कर देखो " गं गलितं पलितं मुण्डम्, दशन-विहीनं जातं तुण्डम् | वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम्, तदपि नं मुळेचत्याशापिण्डम् | भज गोविन्दं, भज गोविन्दं, भज गोविन्दं मूढमते ! -आचार्य शंकर, भजगोविन्दं स्तोत्र श्लोक १४. S 'सुवण्ण-रुपस्स उपन्यया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया, नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया । " -उत्तराध्ययन सूत्र ९,४६
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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