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________________ प्रश्नों के उत्तर : तो वह सीमा और आगे मिलती हुई दिखेगी, ऐसे हम लाखों-करोड़ों वर्षों तक ही नहीं, कई काल चक्र भी बिता दें तब भी ग्रांक श का अन्त नहीं आता । इसी तरह चाहे कितना भी धन हो जाए फिर भी तृष्णा की आग शान्त नहीं होती । जैसे प्रज्वलित अग्नि में डाला हुआ पैट्रोल या इंधन उसे बुझाता नहीं बढ़ाता है, इसी तरह धन-वैभव के मिलने पर तृष्णा की आग बुझती नहीं, प्रत्युत बढ़ती है। और इसी कारण मानव को शान्ति नहीं मिलती। वह सदा-सर्वदा संकल्प-विकल्पों में डूबा रहता है, अशान्ति की आग में जलता रहता है । ** गृहस्थ जीवन में मनुष्य ममता का पूर्णतः त्याग नहीं कर पाता, फिर भी वह उसे सीमित कर सकता है। पूरे वेग से दौड़ने वाली नदी के पानी को बांध की दीवारों से रोक लिया जाता है, तो वह बाढ़ का पानो मानव जीवन के लिए अभिशाप एवं दुःख का कारण न हो कर, उस के लिए वरदान रूप में सिद्ध होता है । इसी तरह ममता, तृष्णा G एवं आकांक्षा को जब त्याग की सीमा में बांध लिया जाता है, तो फिर उस से स्वयं एवं दूसरे मनुष्यों के जीवन को खतरा एवं भय नहीं रहता । इस बान्ध को जैन परिभाषा में 'परिग्रह-परिमाण व्रत' कहते हैं । ४९६ 'परिग्रह परिमाण व्रत' का आराधक व्यक्ति अपनी अनन्त एवं असीम ममता, प्रासक्ति एवं तृष्णा को एक सीमा में बांध लेता है । अपने द्रव्य की मर्यादा करके वह अपनी आसक्ति एवं देता है। इस से उसके मन में भी शान्ति रहती है राष्ट्र के जीवन में भी शान्ति का संचार होता है। सीमा न होने से मनुष्य के मन में धन-वैभव को बढ़ाने की अभिलाषा होती है और उसे बढ़ाने के लिए उसे उचित एवं अनुचित साधनों का क्योंकि तृष्णा की ममता को घटा और समाज एवं
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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