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________________ प्रश्नों के उत्तर ४९४ • भी वह परिग्रही नहीं कहा गया है। इसका कारण यह है कि साधु जीवन में वस्त्र - पात्र एवं स्वीकार किए जाने वाले खाद्य पदार्थों में आसक्ति नहीं होती, अपनत्व नहीं होता । वह केवल संयम - निर्वाह की भावना से उपकरण एवं खाद्य पदार्थों को स्वीकार करता है । यदि कोई उसके उपकरण छीन कर ले जाए तो वह उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करेगा, उस के लिए हो-हल्ला नहीं मंचाएगा और न विलाप ही करेगा, परन्तु उपकरण - रहित स्थिति में वह शांत भाव से अपनी साधना में संलग्न रहेगा। यहां तक कि उस के पास लज्जा को ढकने के लिए तथा शीत के निवारणार्थ वस्त्र भी नहीं हैं तब भी वह चिन्ता एवं दुःख नहीं करके यही सोचेगा कि अचेल - वस्त्र रहित अवस्था भी साधना का मार्ग है । मुझे इस तप को साधने आराधने का सहज ही अवसर मिल गया । परन्तु गृहस्थ जीवन में ऐसी भावना का मिलना कठिन है ! उसे केवल अपना हो जीवन नहीं चलाना है, बल्कि पूरे परिवार के दायित्व को निभाना है और साथ में सामाजिक एवं राष्ट्रीय कर्त्तव्य का भी परिपालन करना है । अतः वह पदार्थों पर सं ममत्व का पूर्णतः त्याग नहीं कर पाता । उसका अपने दश, समाज एवं परिवार में अपनत्व रहता है । अपनी पारिवारिक समस्याओं का हल करने के लिए आवश्यक पदार्थों पर भी उसे अपनत्व रखना होता है और अपने दायित्व को निभाने के लिए उसे अपने परिवार एवं पारिवारिक धन-माल की सुरक्षा का भी ध्यान रखना होता है । सामाजिक एवं राष्ट्रीय कर्त्तव्य का भी पालन करना पड़ता है। इस कारण वह पूर्णतः अपरिग्रही नहीं हो सकता । अस्तु, उसका परिग्रह केवल वाह्य पदार्थों के कारण नहीं, किन्तु उस में रही हुई प्रासक्ति के कारण है । यदि साधु भी तृष्णा एवं आसक्ति के कारण किसी भी
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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