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________________ श्रीमद् विजयानंदसूरि कृत, ॥॥ निज विजुति लीनीलार, लोकालोक करी उजवार । नाम जपे सब पाप कटे, दुर्मति सब बुट गरे ॥ श्री शंखेश्वर ॥३॥ आनंद मंगल जगमें चार, मंगल प्रथम जगत करतार । श्रीवामा सूतं पास तुंही, अघ भ्रांति मिट गरे ॥ श्री शंखेश्वर ॥४॥ श्याम मेघ सम पासजी निरखी, आत्म आनंद शिखी जिम हरखी । कर्त शब्द मुख पास तुंही, यही रटना रट लश्रे ॥ श्री शंखेश्वर ॥ ५ ॥ इति ॥ अथ महावीर स्वामीनुं स्तवन. राग. सोरठ. वीर जिने दीनी माने एक जरी, एक जुजंग पंचविस नागन, सुंघत तुरत मरी ॥ अांचली ॥ कुमति कुटल अनादिकी वैरन, देखत तुरत डरी, चारोही दासी पूत जयंकर, हुए
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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