________________
द्वादश जावना.
૫૩
चेतन ॥ आंचली ॥ जग तरु वीज नूत करम जे । खेरु करे सुखपाये ॥ सो निर्जरा दोय भेद सुनीजे । सकामा काम बतावेरे ॥ चेतन ॥ १ ॥ संयमी कों सकाम निर्जरा | इतरां को इतर कहावे । कर्म पापका फल जो जोगे । स्वय उपाय सुनावेरे ॥ चेतन ॥ २ ॥ मलयुत कनक तप्त वन्हिसे जेसे दोष जरावे । तप निसें कर्म तपाये तेसें जीव सुजावेरे ॥ चेतन ॥ ३ ॥ खाना नहिं उनो - दरि करनी । विरती संखेप गिनावे | रस त्यागे तनु कष्ट करे जो । इन्द्रिय विषय रुंधावेरे ॥ चेतन ॥ ४ ॥ षटू नेदे यह बाह्य कह्यो तप । षट् विध अंतर ठगवे । प्रायवित्तवियावच्च सुहंकर । विनय व्युत्सर्ग धरावेरे ॥ चेतन ॥ ५ ॥ शुभ ध्याने तपो अनि दीपे बाहिर दर जावे । संयमीजन करे दृष्ट निर्जरा
-