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श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत, आंचली ॥ तन धन खजन साहायक जे ते इनसे अन्य निरंगीरे। जीवसे एही विलक्षण दीसे अन्यपणा दृग संगीरे ॥ ब्रह्म॥१॥ जो नवी देह बंधु धन जनसे श्रातम निन्नहि मंगीरे । तिन कों सोग शंकुसे पीमा व्यापे नहीं मुख जंगीरे ब्रह्म । ३। जेसे कुधातु से कंचन बिगस्यो दीसे स्वरूप विरंगीरे । गये कुधातु के निजगुण सोहे चमके निजगुन चंगीरे ॥ ब्रह्म ॥३॥ करम कुधातुसे चेतन विगर्यो माने सवहि एकंगीरे । सम्यग दरसन चरण तापसे दाहे करम सरंगीरे । ब्रह्म । श्रातम निन्न सदा जमतासे सत चिद रूप धरंगीरे। आनंद ब्रह्म सुहं कर सोहे अजर अमर अनंगीरे वगया
॥ इति अन्यत्व जावना ॥ अथ ही अशुचि नावना.
॥राग सिंध काफी ॥ तनु शुची नहीं होवे कांहेकुं नरम