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________________ चतुर्विंशति जिनस्तवन. ३५ नाहीं परोघोर अंधेर में । सब रूप सुन्दर बार कीने । मोह महातम घेर में ॥ ३ ॥ आषाड कुगुरु प्रदान कीनो तप्त वात चउरासीयां । मानसी तन रोग पीरा घरम गरमी फासीयां । अधोभूमी नरक ताती बातीयां बहु दुख नरे । अब नेम समरण कीजीये तन तपत टारे दुख हरे ॥ ४ ॥ सावन घटा घनघोर गरजी नेम वानी रसजरी । अपबंद निंदक संघके तिन जान सिर विजरी परी । सत्ता सुभूमी जव्यजनकी अंससे सववरी । अब आस पुन्य अंकुर की मनमोद सहियां फिरखरी ॥ ए ॥ जादो नए फुन पुन्य पूरे धरम वारी लह लही । सहस अष्टादस दले सीलांग संज्ञा कुमरही । सरधान जलसुध सींचता प्रतिज्ञान तरुवर फुल रहे । लागेंगे अजरामर फल मधु नेम आणा सिर वदे ॥ ६ ॥ श्रसुपु
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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