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चतुर्विशति जिनस्तवन.
मेघ आषाड ज्यूं । निजवाबड हो सुरजी जिम प्रेम ॥ साहिब अनंतजिनंदसू । मुफ लागीहो नक्ति मन तेम ॥ श्र॥ ॥३॥प्रीति अनादिनी मुख नरी। में कीधीहो पर पुदगल संग ॥ जगत जम्यो तिन प्रीत सू । सांग धारी हो नाच्यो नव नव रंग ॥ अ० ॥४॥ जिस कों आपणा जानीयो।तिन दीधा हो बिनमे अतिबेह ॥ परजन केरी प्रीतडी । में देखी हो अंते निसनेद ॥ अण् ॥५॥ मेरो कोई न जगतमे ॥ तुम बोडी हो जगमे जगदीसाप्रीत करूं अब कोनसू। तूं त्राता हो।मोने विसवा विस ॥ अ॥ ॥६॥ आतमराम तूं माहरो। सिर सेहरो हो हियडेनो हार ॥ दीनदयाल किरपा करो । मुफ वेगाहो अब पार उतारो ॥ अ० ॥७॥
इति श्री अनन्तनाथ जिनस्तवनम् ॥