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२५ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत, जिनवर जसमे लीन पीन प्रनु अर्च करानी । तुक किरपा नई नाथ आज हुँ नक्ति पिलानी ॥६॥ जग तारक जगदीस काज अब कीजो मेरो । अवर न सरण श्राधार नाथ हुं चेरो तेरो ॥ दीन हीन अब देख करो प्रनु वेग सदा।। चातक ज्यूं घनघोर सोर निज आतम लाइ॥७॥ इति श्रीविमलनाथ जिन स्तवनम् ॥ १३ ॥
श्री अनन्तनाथ जिन स्तवन । - नीदमली बैरण होरही ॥ ए देशी ॥
अनंत जिनंदसु प्रीतमी।नीकी लागी हो अमृतरस जेम ॥ अवरसरागो देवनी। विषसरखी हो सेवा करूं केम ॥१०॥ ॥१॥ जिम पदमनी मन पिउ वसै। निर्धनीया हो मन धन की प्रीत ॥ मधूकर केतकी मन बसे । जिम साजन हो विरही जन चीत ॥ अ० ॥२॥ करसण