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१७० श्रीमघीरविजयोपाध्याय कृत, वंडित के पुरण हारा । नाम मंत्र जपलो एकवारा । कहिनकरमके चुरनहारा ॥ चिं ॥१॥ अरज एक प्रजुजीसें मोरी। सेवाचाहुं मे नवनव तोरी। लक्ष चौरासी रुलतामे आया। पुरवपुन्ये चिंतामणि पाया ॥ चिं ॥२॥ और देवनकी सेवा मे कीनी । पापकी गहडीमें सीरलीनी। कहोरेन मान्यो कुमति वस किसको.। प्यालो न पीयो अमृत रसको ॥ चिं ॥३॥ औरदेवनकुं कबहुनमार्नु । सचापास चिंतामणि जानु।प्रजुके चरण शरण करलीनी।
और देवनकुं जलांजलीदिनी ॥ चिं॥ ॥४॥ आगरा मंडन सबदुःख खंडन । पास चिंतामणि शीतल चंदन । वीरविजय कहे तपत बुहकावो । नाम जगतमें हेतु मचावो ॥ चिं ॥५॥ जुगरसनिधि इंवत्सरमें । मासलाउपद शुक्लपक्ष में । दिन संवबरी का जब आया ।चिंतामणी