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१३७ श्रीमवीरविजयोपाध्याय कृत, ॥अथ श्रीजीरामंडनचंप्रनजिन
- स्तवन ॥ श्रा ईनार करकर श्रृंगार ॥ए देशी ॥ । प्रनु अरज धार मनमे विचार तुमहो कृपाल करो मारीसार महसेन तात लक्ष्मणा उर जायो ॥ प्रजु ॥१॥ हुं हाथ जोम कहुँमानमोम माहापाप घोर हे तेहनो जोर हरोःखनी क्रोमकरो निजरुपजेसो ॥ प्रनु ॥॥ तुमहो दयाल धरो बिरुदसार मेरो जव संसार काढो तेहथी बार दीनाके नाथ मेरी अरज सुणिजे ॥ प्रजु ॥३॥ हुं रहो निराश वस्यो गरजावास महाउखनीरास जाणे नरकावास अब मिवियो नाथ मुख हरो प्रजु मेरो ॥ प्रनु । ४॥ श्राज आणंद अंग मनमे उमंग जाणे पुनमचंद शीतल अनंग हे लंबन चंद एसो चंड प्रनु दिगे ॥ प्रजु ॥५॥