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________________ चतुर्विंशति जिनस्तवन. निमित्त न नीपजे।माटी तनो घट जेमजी। तिम ही निमित्त जिनजी विना । उजल थाचं हूं केमजी।श्रीसु॥॥ त्रिकरण शुद्ध थावे यदा।तदा सम्यग दर्शण पाम जी। दूजे त्रिक ब्रह्म ज्ञान है। त्रिक मिटे शिवपुर गम जी । श्रीसु॥५॥ एही त्रिण त्रिक मुफ दीजीए । लीजिये जस अपार जी। कीजीये जक्तसहायता । दीजिए अजरथमारजी ॥श्री०॥ ६॥ अव जिनवर मुफ दीजिए। बातम गुण भरपूर जी । कर्म तिमिर के हरण कों। निर्मल गगन जूं सूरजी श्री सु० ॥७॥ इति श्री सुपार्थ जिनस्तवनम् ॥ ७॥ श्री चंप्रन जिनस्तवन । . चाहत श्री प्रन्नु सेवा वा करूंगी उलटी कर्म वना ईरी ए देशी ॥ चाह लगी जिनचंड प्रनु की। मुज मन सुमति ज्युं आरी। नरम मिथ्या
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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