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१३० श्रीमधीरविजयोपाध्याय कृत, तुम नये शीवपुरवासीरे ॥ वी ॥१॥ प्रजु दरिसण परत न दी। ईणअ॒नयोरे नीराशीरे ॥ वी ॥२॥ करमरायशुनटें मुज घेख्यो।महारी करे सब हांसीरे ॥ वीर ॥३॥ तुम विना · एकांकी मुजदेखी।डारी गले मोहफांसीरे॥वीर ॥ प्रनु विना को नकरे मुज करुणा। देखो दिलमे विमासीरे वीर॥५॥ पीण तुज श्रागमने तुज मुरति । एही शरण मुज थासीरे ॥ वीर ॥६॥ एही नरोंसो मुज मन मोटो।नांगी नवकी उदासीरे॥वीर ॥७॥ वीरविजय कहे वीर प्रचुकी। मुरती शरणज थासीरे ॥ वीर ॥ ॥ इति श्रीमहावीर जिन स्तवन संपूर्ण ॥
॥ अथ कलश ॥ राग रेखता ॥ ॥ चैवीस जिन राजमें गाया परम आनंद सुरव पाया।प्रनु गुण पार ना पावे जो सुर