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स्तवनावली. . १३१ गुरु वर्णवा श्रावे ॥ चौवी ॥१॥अलपसी बुद्धिहे मोरी करीपिण वर्णना तोरी प्रजु तुमे मानजो साची न थाये जगतमें हांसी ॥ चौवी॥२॥ मेरी अव लाज तुमहाथे वांहे ग्रही लिजियें साथे । कहो प्रनु जोरक्या तुमने जरा उकारतां हमने ॥ चौवी ॥३॥ प्रक्षु चौवीस जगखामी पुरवले पुन्यथी पामी । हरो सवऽखनो घेरो नसे जरामर्णनो फेरो॥चौवी ॥वेर्दै युग अंक २ वर्षे आषाढे मास शुक्लपक्ष। तिथौ जली पूर्णिमा पूरी। जयो सोमवार सुखनूरी ॥ चौवी ॥ ५ ॥ विजे श्रानंद गुरुपायो वहु मन वीर हरषायो। भृगुकल पुर चौमासी रही करी विनती साची ॥ चौप ॥६॥ इति कलश॥