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श्रीमघीरविजयोपाध्याय कृत,
देवविना और देवनकी मे वार्ता मानें तो नहीं ॥ थर ॥७॥
इति श्रीथर जिन स्तवन समाप्तं ॥ ॥ अथ श्रीमल्लि जिन स्तवन ।
॥राग हुमरी ददणी ॥ श्राज जिनंदजीका दीहा में तो मुखमां मल्लि जिनंद प्रनु हमपर तुहमा ॥ था ॥१॥ चजगती फिरतमें पायो बहु उखमां तुम प्रजु चरण ग्रहुं तो थाय सुखडा ॥ आण ॥॥तुब जे विषय सुख लागे मुने मीमां नरंग तिर्यगमांही तेना फल दीघ्डां ॥ आ ॥३॥ताहारे जरोसे प्रनु लाग्युं मारुं मनहुँ कृपाकरी तारवाने करो एक तनहुं ॥ श्रा॥४॥ आनंद विजयनों सेवक मागे एटळू वारवार प्रनुजीने कहुँ हवे केटवू ॥ श्रा० ॥५॥
॥ इति श्रीमति जिन स्तवन ॥