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________________ चतुर्विंशति जिनस्तवन. खीनो ॥ सु०॥६॥सुमति सुमति समता रस सागर । आगर शान जरीनो । आतम रुप सुमति संग प्रगटे । शम दम दान वरीनो ॥ सु० ॥७॥ इति श्री सुमति जिन स्तवनम् ॥ श्रीपद्मप्रन्न स्तवन । तषत हजारेनुगयो मैनू म कै ॥ ए देशी ॥ पद्मप्रनु मुफ प्यारा जी। मन मोहन गारा ॥ चंद चकोर मोर घन चाहे । पंकज रविवन सोरा जी ॥ मन ॥१॥ त्यूं जिनमूर्ति मुफ मन प्यारी। हिरदे श्रानंद अपारा जी ॥ मन॥२॥ अब क्यों बेर करी मुफ खामी । नवदधिपार उतारा जी ॥ म॥३॥ पंच विघन जय रति तुम जीती। अरति काम विडारा जी ॥ म॥४॥ दास सोग मिथ्या सब गरी। नींद अत्याग नखारा जी ॥म ॥५॥ राग वेष घीन मोह अझाना । अष्टादश
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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