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११५ श्रीमवीरविजयोपाध्याय कृत,
श्रातम श्रानंद मुज दीजो। वीरनु काज सबकीजो ॥ प० ॥ ५ ॥
॥ इति श्रीपद्मप्रजुजिन स्तवन ॥ ॥ अथ श्रीसुपासजिन स्तवन ॥ ॥राग सामेरी । तुमरीका नेद ॥
पुजोरे माई श्रीसुपास जिणंदा। पुजोरे ॥ आंकणी ॥ नवण विलेपन कुसम धुपश्री दीपधरोमनरंगे ॥ पुण्॥१॥ श्रदत फल नैवेद्य धख्याथी कुष्ट करम निकंदे ॥ पुण्॥२॥ विधिसुं अष्टप्रकारी पुजन करतां नवकुखनंगे ॥ पु० ॥३॥ नाटक तान मानसें करतां तीर्थंकर पदबंधे ॥ पु० ॥४॥ जिनपुजा ए सार जगतमे जाणी करवा उमंगे॥ पु॥ ५॥ वीरविजय कहेश्न पुरषकुं अवीचल सुखमां संगे ॥ पु०॥६॥ इति श्रीसुपासजिन स्तवन ॥