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________________ स्तवनावली. ..१७ णीहै । जैसी गती तिहारी देव । तुंही जाणे नित्य मेव । अकल अलख तेरो अगम स्वरूपहे ॥ आ ॥३॥ अहनिशतेरे विच ।कीये जिने समचित्त । नयि तिने नीरजीक।सुगति सोजागीहै। नक्तकी सुणी राव चित्तमे किजे हराव । आतम श्रानंद वीरविजय मांगुतहै ॥ श्रा ॥४॥॥ इति श्रादिजिन स्तवन ॥ ॥ अथ श्री अजित जिन स्तवन. ॥ ॥राग जोपाल ताल संगीत ॥ ॥ध्या जिन अजित देव । जवीजन हीत कारी॥ श्रांकणी ॥ तुम प्रनु जित राग वेष । कर दिये सब कर्म बेद । थीर चित्त करूं तुमरी सेव । जिम थालं नवपारी ॥ध्या ॥१॥ तुम विन नहीं ज्ञान ज्ञेय । तुम विन नहीं ध्यान ध्येय।तुम विना करुं किनकी सेव । अंतर गतधाA ॥ध्या॥॥अब चित्त धरी करी विचार।
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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