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________________ ८०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग. चाहिये । कहने का अभिप्राय यह है कि जितने गुण उस व्यक्ति में विद्यमान हों उन्हीं को लक्ष्य मे रख कर स्तुति करना उचित है न कि और असत्य गुणों का आरोपण करके भी क्योंकि ऐसी स्तुति प्रशंसनीय होने के बजाय हास्यास्पद बन जाती है । ऐसी स्तुति हास्यास्पद ही नहीं बल्कि इससे स्तुति करने वाले को दोप भी लगता है । अतः झूठी प्रशंसा कर निरर्थक ही किसी को बॉसों पर नहीं चढ़ाना चाहिए । यही तीन शिक्षाएं हैं, जो हमें इस सूत्र से मिलती हैं । इनके द्वारा उन्नति की ओर वढता हुआ आत्मा सुशोभित होता है। अव सूत्रकार धन्य अनगार के तप के अनन्तर की दशा का वर्णन करते हैं : तए णं तस्स धण्णस्स अणगारस्स अन्नया कयाति पुव्व-रत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं० इमेयारूवे अब्भत्थिते ५एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जहा खंदओ तहेव चिंता आपुच्छणं थेरेहिं सद्धि विउलं दुरूहंति मासिया संलेहणा नवमासपरियातो जाव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम जा णव य गेविज विमाणपत्थडे उड्ढे दूरं वीतिवत्तित्ता सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । थेरा तहेव उयरंत जाव इमे से आयारभंडए । भंते त्ति भगवं गोतमे तहेव पुच्छति जहा खंदयस्स । भगवं वागरेति जाव सव्वद्वसिद्धे विमाणे उववण्णे । धन्नस्स णं भंते! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोतमा! तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता । से णं भंते ! ततो देव-लोगाओ कहिं गच्छिहिंति ? कहिं उववज्जिहिंति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिन्झिहिति ५। तं एवं खलु जंवू ! समणेणं
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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