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तृतीयो वर्गः ]
भाषाटीकासहितम् ।
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की तीन बार आदक्षिणा और प्रदक्षिणा की । वन्दना और नमस्कार किया तथा वन्दना और नमस्कार कर कहने लगा कि हे देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, श्रेष्ठ पुण्य वाले हो, श्रेष्ठ कार्य करने वाले हो, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त हो और तुमने ही इस मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ फल प्राप्त किया है । इस प्रकार स्तुति कर और फिर उनको नमस्कार कर वह जहां श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी थे वहीं आगया। वहां श्रमण भगवान को तीन बार नमस्कार किया और वन्दना की । फिर जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। इस प्रकार चौथा सूत्र समाप्त हुआ।
टीका-इस सूत्र का अर्थ मूलार्थ मे ही स्पष्ट हो गया है। अतः इस विपय में कुछ भी वक्तव्य शेप नहीं है।
हां, अब वक्तव्य इतना अवश्य है कि इस सूत्र से हमे तीन शिक्षाएं मिलती हैं । उनमे से पहली तो यह है कि जिसमे जो गुण हों उनका निःसङ्कोच-भाव से वर्णन करना चाहिए। और गुणवान व्यक्ति का धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिए । जैसे यहां पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने किया। उन्होंने धन्य अनगार के कठोर तप का यथातथ्य वर्णन किया और उसको उसके लिये धन्यवाद भी दिया। दूसरी शिक्षा हमे यह मिलती है कि एक बार जब संसार से ममत्व-भाव छोड़ दिया तो फिर सम्यक् तप के द्वारा आत्म-शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए । यही संसार के इतने सुखों को त्यागने का फल है । जो व्यक्ति साधु वन कर भी ममत्व मे ही फंसा रहे उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इस प्रकार करने से तो वह कहीं का नहीं रहता और उसका इह-लोक और पर-लोक दोनों ही विगड़ जाते हैं । यहां धन्य अनगार ने हमारे सामने कितना अच्छा उदाहरण रखा है कि उन्होंने जब एक बार गृहस्थ के सारे सुखों को त्याग साधु-वृत्ति ग्रहण कर ली तो उसको सफल बनाने के लिये उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप किया और लोगों को बता दिया कि किस प्रकार तप के द्वारा आत्म-शुद्धि होती है और कैसे उक्त तप से आत्मा सुशोभित किया जाता है । तीसरी शिक्षा जो हमें इससे मिलती है वह यह है कि जब किसी व्यक्ति की स्तुति करनी हो तो उसमे वास्तव मे जितने गुण हों उन सब का वर्णन करना