SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः शाल्मली-करीरमिति वा तरुणकमुष्णे यावत्तिष्ठति, एवमेव धन्यस्योरू यावच्छोणितवत्तया । पदार्थान्वयः-धन्नस्स-धन्य अनगार की जंघाणं-जवाओं का अयमेयारूवे-इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ से जहा०-जैसे काकजंघातिवा-काक-जड्डा हो कंकजंघाति वा-अथवा कङ्क पक्षी की जवाएं हों ढेणियालियाजंघाति वा-ढेणिक पक्षी की जड्वाए हों, इसी प्रकार धन्य अनगार की जङ्घाएं भी जाव-यावत् सोणियताए-मास और रुधिर से नहीं पहचानी जाती थीं, धन्नस्स-धन्य अनगार के जाणूणं-जानुओं का अयमेयारूवे-इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ से जहाजैसे कालि-पोरेति वा-कालि-वनस्पति विशेष का पर्व (सन्धि-स्थान) हो मयूर-पोरेति वा-मयूर के पर्व होते है ढेणियालिया-पोरेति वा-डेणिक (ढक्क) पक्षी के पर्व होते है वा-सर्वत्र समुच्चयार्थक है एवं इसी प्रकार जाव-यावत् धन्य अनगार के जानु सोणियत्ताए-मांस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते थे । अर्थात् उनमे मांस और लहू अवशिष्ट नहीं था धरणस्स-धन्य अनगार के ऊरुस्स-ऊरुओं का इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ जहानामते-जिस प्रकार सामकरील्लेति वा-प्रियंगु वृक्ष की कोंपल बोरीकरील्लेति वा-बदरी-बेर की कोंपल सल्लति-शल्य की वृक्ष की कोंपल सामली०-शाल्मली वृक्ष की कोंपल तरुणिते-कोमल ही तोड कर उएहे-गर्मी मे मुरझाई हुई जाव-यावत् चिट्ठति रहती है एवामेव-ठीक इसी प्रकार धन्नस्स-धन्य अनगार के ऊरू-अरु जाव-यावत् सोणियत्ताए-मांस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते । ___ मूलार्थ-धन्य अनगार की जङ्घाएं तप के कारण इस प्रकार निर्मास हो गई जैसे काक (कौवे) की, कङ्क पक्षी की और देणिक (ढंक) पक्षी की जनाएं होती है । वे सूख कर इस तरह की हो गई कि मांस और रुधिर देखने को भी नहीं रह गया । धन्य अनगार के जानु तप से इस प्रकार सुशोभित हुए जैसे कालि नामक वनस्पति, मयूर और टेणिक पक्षी के पर्व (गांठ) होते हैं। वे भी मांस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते थे । धन्य अनगार के ऊरुओं की भी तप से इतनी सुंदरता हो गई जैसे प्रियंगु, बदरी, शल्यकी और शाल्मली वृक्षों की कोमल २ कोंपल तोड़ कर धूप में रखी हुई मुरझा जाती हैं । ठीक इस तरह धन्य अनगार के ऊरु भी मांग और रक्त से रहित हो कर मुरझा गये थे।
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy