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तृतीयो वर्गः ]
पाटीकासहितम् |
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टीका - इस सूत्र में धन्य अनगार की जङ्घा, जानु और ऊरुओं का वर्णन किया गया है । तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जाएं मांस और रुधिर के अभाव से ऐसी प्रतीत होती थी मानो काक-जङ्घा नाम के वनस्पति की - जो स्वभावतः शुष्क होती है-नाल हों । अथवा यों कहिए कि वे कौवे की जङ्घाओं के समान ही निमस हो गई थी । अथवा उनकी उपमा हम कङ्क और ढंक पक्षियों की जङ्घाओं से भी दे सकते है । इसी प्रकार उनके जानु भी उक्त काक-जङ्घा वनस्पति की गांठ के समान अथवा मयूर और ढंक पक्षियों के सन्धि-स्थानों के समान शुष्क हो गये थे । दोनों ऊरु मांस और रुधिर के अभाव से सूख कर इस तरह मुरझा गये थे जैसे प्रियङ्गु, बढरी, कर्कन्धू, शल्यकी या शाल्मली वनस्पतियों के कोमल २ कोंपल तोड़कर धूप मे रखने से मुरझा जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार इस प्रकार धर्म की ओर आकर्पित हुए कि उन्होंने उसी पर अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। यहां तक कि उनको शरीर का मोह भी लेश मात्र नहीं रहा । उन्होंने कठोर से कठोर तप करने प्रारम्भ किये । जिसका फल यह हुआ कि उनके किसी अङ्ग मे भी मांस और रुधिर अवशिष्ट नही रहा । सर्वत्र केवल अस्थि, चर्म और नसा - जाल ही देखने मे आता था ।
अब सूत्रकार धन्य अनगार के कटि आदि अङ्गों का वर्णन करते हैं :
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धन्नरस कडि - पत्तस्स इमेया-रूवे ० से जहानामए उट्ट -पादेति वा जरग्ग-पादेति वा जाव सोणियत्ताए, धन्नस्स उदर-भायणस्स इमे० से जहा० सुक-दिएति वा भज्जणय कभल्लेति वा कटु- कोलंबएति वा, एवामेव उदरं सुक्कं । धन्न० पांसुलिय- कडयाणं इसे ० से जहा ० थासयावलीति वा पाणावलीति वा मुंडावलीति वा । धन्नस्स पिट्टि - करंडयाणं अयमेयारूवे ० से जहा० कन्नावलीति वा गोलावलीति वा वट्टयावलीति वा । एवामेव० धन्नस्स