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________________ ज्ञानार्णवः । अर्थ-गृहस्थगण घरमें रहते हुए अपने चपलमनको वश करनेमें असमर्थ होते हैं, अतएव चित्तकी शान्तिके अर्थ सत्पुरुषोंने घरमें रहना छोड़ दिया है और वे एकान्त स्थानमें रहकर ध्यानस्थ होनेको उद्यमी हुए हैं ॥ १० ॥ __ वंशस्यम् । प्रतिक्षणं इन्दशतार्तचेतसां नृणां दुराशाग्रहपीडितात्मनाम् । नितम्बिनीलोचनचौरसङ्कटे . गृहाश्रमे खात्महितं न सिद्ध्यति ॥११॥ अर्थ-सैकड़ों प्रकारके कलहोंसे दुःखितचित्त, और धनादिककी दुराशारूपी पिशाचीसे पीड़ित मनुप्योंके प्रतिक्षण स्त्रियोंके नेत्ररूपी चौरोंका है उपद्रव जिसमें, ऐसे इस गृहस्थाश्रममें अपने हितकी सिद्धि नहीं होती है ।। ११ ॥ फिर भी कहते हैं, निरन्तरा नलदाहदुर्गमे __ कुवासनाध्वान्तविलुप्सलोचने । अनेकचिन्ताज्वरजिमितात्मनां नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्ध्यति ।। १२॥ अर्थ-निरन्तर पीड़ारूप आर्तध्यानकी अमिके दाहसे दुर्गम, वसनेके अयोग्य, तथा कामक्रोधादिकी कुवासनारूपी अन्धकारसे विलुप्त हो गई है नेत्रोंकी दृष्टि निसमें, ऐसे घरोंमें अनेक चिन्तारूपी ज्वरसे विकाररूप मनुप्योंके अपने आत्माका हित कदापि सिद्ध नहीं होता । ऐसे गृहस्थावासमें उत्तम ध्यान कैसे हो ? ॥ १२ ॥ आगे फिर भी कहते हैं: विपन्महापङ्कनिमग्नवुद्धयः प्ररूढरागज्वरयनपीडिताः। परिग्रहव्यालविषाग्निमूर्च्छिता विवेकवीथ्यां गृहिणः स्खलन्त्यमी ॥ १३ ॥ अर्थ-गृहस्थावस्थाकी आपदारूपी महान् कीचड़में जिनकी बुद्धि फँसी हुई है, तथा जो प्रचुरतासे बढ़े हुये रागरूपी ज्वरके यन्त्रसे पीड़ित हैं, और जो परिग्रहरूपी सर्पके विपकि ज्वालासे मूर्छित हुए हैं, वे गृहस्थगण विवेकरूपी वीथीमें (गलीमें ) चलते हुए स्खलित हो जाते हैं अर्थात् च्युत हो जाते हैं । अथवा समीचीन मार्गसे ( मोक्षमार्गसे) भ्रष्ट हो जाते हैं ।। १३ ॥ १ "नश्यति खात्मनो हित” इत्यपि पाठः ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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