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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दूसरे संसारसे विरक्त हो । क्योंकि संसारसे विरक्त हुए विना ध्यानमें चित्त किसलिये लगावे ? तीसरे क्षोभरहित शान्तचित्त हो,। क्योंकि व्याकुलचित्तके ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती । चौथे वशी कहिये जिसका मन अपने वशमें हो। क्योंकि मनके वश हुए विना वह ध्यान में कैसे लगै? पांचवें स्थिर हो, शरीरके सांगोपांग आसनमें दृढ हो । क्योंकि काय चलायमान रहनेसे ध्यानकी सिद्धि नहीं होती । छट्टे जिताक्ष (जितेन्द्रिय ) हों। क्योंकि इन्द्रियोंके जीते विना वे विषयोंमें प्रवृत्त करती हैं, और ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती । सातवें संवृत कहिये संवरयुक्त हो । क्योंकि खानपानादिमें विकल हो जावे तो, ध्यानमें चित्त कैसे स्थिर हो ? आठवें धीर हो । उपसर्ग आनेपर ध्यानसे च्युत न होवे तब ध्यानकी सिद्धि होती है । ऐसे आठगुणसहित ध्याताके ध्यानकी सिद्धि हो सकती है, अन्यके नहीं होती ॥ ६ ॥ ___ अब इस ही कथनका विस्तार करते हैं और प्रथम गृहस्थावस्थामें उत्तम ध्यानका निषेध करते हैं, उपजातिवृत्तम् । उदीर्णकर्मेन्धनसंभवेन दुःखानलेनातिकदर्थ्यमानम् ।। दन्दह्यते विश्वमिदं समन्तात्प्रमादमूद च्युतसिद्धिमार्गम् ॥७॥ अर्थ छोड़ दिया है मोक्षमार्ग जिसने ऐसे प्रमादसे मूढ होकर यह जगत् उदयमें आये हुए कर्मरूपी इंधनसे उत्पन्न दुःखरूपी अग्निसे पीड़ित होता हुआ, चारों ओरसे जलता है ॥ ७॥ अब ऐसे जगतसे निकले हुए मुनिको उद्देश करके कहते हैं दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवह्निना। प्रमादमदमुत्सृज्य निष्क्रान्ता योगिनः परम् ॥८॥ अर्थ-महामोहरूपी अग्निसे जलते हुए इस जगतमेंसे केवल मुनिगण ही प्रमादको छोड़कर निकलते हैं, अन्य कोई नहीं ॥ ८ ॥ न प्रमादजयं कर्तुं धीधनैरपि पार्यते । महाव्यसनसंकीर्णे गृहवासेऽतिनिन्दिते ॥९॥ अर्थ-अनेक कष्टोंसे भरे हुए अतिनिंदित गृहवासमें बड़े २ बुद्धिमान् भी प्रमादको पराजित करनेमें समर्थ नहीं हैं । इस कारण गृहस्थावस्थामें ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती ॥ ९॥ .: ‘शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मनः । . .. . अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थ सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थितिः॥१०॥ .
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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