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________________ ज्ञानार्णवः । 20 इसका संक्षिप्त आशय यह है कि, आत्मा अनादिकालसे अपने स्वरूपको भूल रहा है, इस कारण आस्रवरूप भावोंसे कर्मोंको बांधता है और जब यह अपने रूपको जानकर उसमें लीन होता है, तब यह संवररूप होकर आगामी कर्मवन्धको रोकता हैं, और पूर्वकमकी निर्जरा होनेपर मुक्त हो जाता है । उस संवरके बाह्यकारण समिति, गुप्ति, धर्मानुप्रेक्षा परीषहोंका जीतना तथा चारित्र आदि कहे गये हैं । उसका विशेष कथन तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओंसे जानना चाहिये ॥ ८ ॥ दोहा | निजस्वरूपमें लीनता, निश्चयसंवर जानि । समिति - गुप्ति-संयम धरम, धरें पापकी हानि ॥ ८ ॥ इति संवरभावना ॥ ८ ॥ अथ निर्जराभावना लिख्यते । आगे निर्जराभावनाका व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही निर्जराका तथा यह जिनको होती है, उनका स्वरूप कहते हैं या कर्माणि शीर्यन्ते वीजभूतानि जन्मनः । प्रणीता यमिभिः सेयं निर्जरा जीर्णवन्धनैः ॥ १ ॥ अर्थ - निर्जरासे जीर्ण हो गये हैं कर्मबन्ध जिनके, ऐसे मुनियोंके जिससे बीजरूप कर्म गलजाते हैं वा झड़ जाते हैं; उसे मुनिजन निर्जरा कहते हैं ॥ १ ॥ सकामाकामभेदेन द्विधा सा स्याच्छरीरिणाम् । निर्जरा यमिनां पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् ॥ २ ॥ अर्थ – यह निर्जरा जीवोंको सकाम और अकाम दो प्रकारकी होती है । इनमेंसे पहिली सकामनिर्जरा तो मुनियोंको होती है और अकामनिर्जरा समस्त जीवों को होती है । इससे अर्थात् अकामनिर्जरासे विना तपश्चरणादिके खयमेव निरन्तर ही कर्म उदयरस देकर क्षरते रहते हैं ॥ २ ॥ पाक: स्वयमुपायाच्च स्यात्फलानां तरोर्यथा । तथा कर्मणां ज्ञेयः स्वयं सोपायलक्षणः ॥ ३ ॥ अर्थ -- जिस प्रकार वृक्षोंके फलोंका पकना एक तो स्वयं ही होता है, दूसरे पाल देनेसे भी होता है । इसी प्रकार कर्मोंका पकना भी है अर्थात् एक तो कमकी स्थिति पूरी होनेपर फल देकर क्षिर जाती है, दूसरे सम्यग्दर्शनादिसहित तपश्चरण करनेसे कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् क्षर जाते हैं ॥ ३ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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