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________________ ४५ ज्ञानार्णवः। ___४५ आगे दोनों भेदोंका खरूप कहते हैं, या कर्मपुद्गलादानविच्छेदः स्यात्तपस्विनः । : . स द्रव्यसंवरः प्रोक्तो ध्याननिधृतकल्मषैः ॥२॥ अर्थ-ध्यानसे पापोंको उडानेवाले ऋपियोंने कहा है, कि जो तपती मुनियों के कर्मरूप पुद्गलोंके ग्रहण करनेका विच्छेद (निरोध) हो, वह द्रव्यसंवर है ॥ २ ॥ या संसारनिमित्तस्य क्रियाया विरतिः स्फुटम् ।। स भावसंवरस्तज्ज्ञविज्ञेयः परमागमात् ॥३॥ अर्थ संसारके कारणस्वरूप कर्मग्रहणकी क्रियाकी विरति अर्थात् अभावको भावसंवर कहते हैं, यह निश्चित है । ऐसा उक्त भावसंवरके ज्ञाताओंको परमागमसे जानना चाहिये ॥३॥ __असंयममयैर्वाणैः संवृतात्मा न भिद्यते । यमी यथा सुसन्नद्धो वीरः समरसंकटे ॥४॥ अर्थ-जिस प्रकार युद्धके संकटमें भले प्रकारसे सना हुआ वीरपुरुप चाणोंसे नहीं भिदता है, उसी प्रकार संसारकी कारणरूप क्रियाओंसे विरतिरूप संवरवाला संयगीमुनि भी असंयमरूप वाणोंसे नहीं भिदता है ॥४॥ आगे आस्रवोंके रोकनेका विधान कहते हैं, जायते यस्य यः साध्यः स तेनैव निरुध्यते । अप्रमत्तः समुद्युक्तैः संवरार्थ महर्षिभिः ॥५॥ अर्थ-प्रमादरहित संवरकेलिये उद्यमी महर्पियोंद्वारा जो जिसको साध्य हो, वह उसीसे रोकना चाहिये । भावार्थ-जिस कारणसे आस्रव हो, उसके प्रतिपक्षी भावोंसे उसे रोकना चाहिये ॥ ५ ॥ उन भावोंको आगे कहते हैं, क्षमा क्रोधस्य मानस्य मार्दवं त्वार्जवं पुनः ।। मायायाः सङ्गसन्यासो लोभस्यैते द्विषः क्रमात् ॥ ६॥ अर्थ-क्रोधकयायका तो क्षमा शत्रु है, तथा मानकपायका मृदुभाव (कोमलभाव), मायाकपायका ऋजुभाव (सरलभाव) और लोमकपायका परिग्रह-त्यागभाव; इस प्रकार अनुक्रमसे शत्रु जानने चाहिये ॥ ६ ॥ और. रागद्वेषौ समत्वेन निर्ममत्वेन वानिशम् । मिथ्यात्वं दृष्टियोगेन निराकुर्वन्ति योगिनः ॥ ७॥ अर्थ-जो योगी ध्यानी मुनि हैं, वे निरंतर समभावोंसे अथवा निर्ममत्वसे रागद्वेपका. निराकरण (परास्त ) करते रहते हैं, तथा सम्बन्दर्शनके योगसे मिथ्यात्वन्स भावोंको नष्ट कर देते हैं ॥ ७॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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