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________________ .४४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् त्रैलोक्यतिलकीभूतं निःशेषविषयच्युतम् । । निबन्दं नित्यमत्यक्षं खादिष्ठं खखभावजम् ।। ८३ ॥ · निरौपम्यमविच्छिनं स देवः परमेश्वरः।। तत्रैवास्ते स्थिरीभूतः पिवन ज्ञानसुखामृतम् ॥ ८४॥ अर्थ-श्रीसिद्ध परमेष्ठी परमेश्वर देव समस्त त्रैलोक्यका तिलकखरूप, समस्त विषयोंसे रहित, निर्द्वन्द्र अर्थात् प्रतिपक्षी रहित, अविनाशी, अतीन्द्रिय, खादस्वरूप, अपने खभावसे ही उत्पन्न, उपमारहित और विच्छेदरहित ज्ञान और सुखरूपी अमृतको पीते हुए स्थिरीभूत तीन लोकके शिखरपर विराजमान रहते हैं ।। ८३ ॥ ८४ ॥ नग्धरा। देवः सोऽनन्तवीर्यो दृगवगमसुखानयरत्नावकीर्णः श्रीमांस्त्रैलोक्यमूर्ध्नि प्रतिवसति भवध्वान्तविध्वंसभानुः । खात्मोत्थानन्तनित्यप्रवरशिवसुधाम्भोधिमनः स देवः सिद्धात्मा निर्विकल्पोऽप्रतिहतमहिमा शश्वदानन्दधामा॥८॥ अर्थ-जिनके अनन्त वीर्य हैं अर्थात् प्राप्त स्वभावसे कभी च्युत नहीं होते, जो दर्शन ज्ञान और सुखरूप अमूल्य रतौंसहित है, जो संसाररूप अन्धकारको दूर कर सूर्यके समान विराजमान है, जो अपने आत्माहीसे उत्पन्न ऐसे अनन्त नित्य उत्कृष्ट शिवसुखरूपी अमृतके समुद्र में सदा मम हैं, विकल्परहित हैं, जिनकी महिमा अप्रतिहत (जो किसीके आहत न होवे ) है और जो निरन्तर आनन्दके निवासस्थान हैं ऐसे श्रीसिद्ध परमेष्ठी देव शोभायमान जो तीनों लोकोंका मस्तक (शिखर) है उसमें सदा निवास करते हैं ॥ ८५ ।। इति कतिपयवरवर्णैानफलं कीर्तितं समासेन । . . . निःशेषं यदि वक्तुं प्रभवति देवः खयं वीरः॥८६॥ अर्थ-ऐसे. पूर्वोक्त प्रकार कितने ही श्रेष्ठ अक्षरों के द्वारा संक्षेपसे ध्यानका फल कहा है । इसका समस्त फल कहनेका खयं श्रीवर्द्धमान स्वामी ही समर्थ हो सकते हैं ॥ ८६ ॥ दोहा । सकल कंपाय अभावते, उज्वल चेतन भाव । शुक्लध्यानमें होय तव, कर्मनिर्जरा धाव ॥१॥ . . सर्व कर्मका नाश करि, देत मोक्ष यह ध्यान । सुख अनन्त तहँ भोगवे, सदा रहै स्थिर ध्यान-॥२॥. अब ग्रन्थका उपसंहार कहते हैं। .. . . . . . . . . . . . . मालिनी. ... ... इति जिनपतिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किश्चित् · · खमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम्।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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