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________________ १४५ ज्ञानार्णवः। अर्थ-आकाश, मेघ, सूर्य, सर्पाका इन्द्र, चन्द्रमा, मेरु, पृथ्वी, अमि, वायु, समुद्र और कल्पवृक्षोंके गुणोंका समस्त समूह भी चिन्तवन किया जाय तो भी उनकी उपमा परम गुरु श्रीसिद्ध परमेष्ठीके गुणोंके साथ नहीं हो सकती । भावार्थ-संसारके उत्तमोत्तम पदार्थोके गुण विचार करनेसे भी ऐसा कोई पदार्थ नहीं देख पड़ता कि जिसके गुणोंकी उपमा सिद्ध परमेष्ठीके साथ दी जाय ॥ ७९ ॥ नासत्पूर्वाश्च पूर्वा नो निर्विशेषविकारजाः । खाभाविकविशेषा ह्यभूतपूर्वाश्च तद्गुणाः ॥ ८॥ अर्थ-सिद्ध परमेष्ठीके गुण पूर्वमें नहीं थे ऐसे नहीं हैं "अर्थात् पूर्वमें भी शक्तिरूपसे विद्यमान ही थे। क्योंकि असत्का प्रादुर्भाव नहीं होता यह नियम है । यदि असत्का भी प्रादुर्भाव माना जाय तो शशशृंगकामी प्रादुर्भाव होना चाहिये. किंतु होता नहीं है । यही इस नियममें प्रमाण है" और पूर्वमें व्यक्त नहीं थे तथा विशेष विकारसे उत्पन्न नहीं किंतु स्वाभाविक हैं। (इस प्रकार पूर्वार्द्धद्वारा निषेधमुख कथनकरके, इसी विषयको पुनः उत्तरार्द्धद्वारा विधिमुखवाक्यसे कहते हैं कि-) सिद्ध परमेष्ठीके गुण खाभाविकविशेष अर्थात् पूर्वमें भी शक्तिकी अपेक्षा खभावमें ही विद्यमान और अभूतपूर्व अर्थात् पूर्वमें व्यक्त नहीं हुए ऐसे हैं । भावार्थ-आत्माके जो स्वाभाविक गुण पूर्वावस्थामें अव्यक्त रहते हैं वे ही सिद्धावस्थामें व्यक्त होजाते हैं। इसीसे ( शक्तिकी अपेक्षा पूर्व में भी विद्यमान होनेके कारण) उन गुणोंको 'पूर्वमें नही थे' ऐसा नहीं कह सकते और पूर्वमें व्यक्त नहीं थे इससे 'पूर्वमें थे' ऐसा भी नहीं कह सकते । और खाभाविक होनेके कारण उनको विकारज भी नहीं कह सकते किंतु चे (गुण ) शक्तिकी अपेक्षा खाभाविक और व्यक्तिकी अपेक्षा अभूतपूर्व ही कहे जाते हैं ॥ ८०॥ वाक्पथातीतमाहात्म्यमनन्तज्ञानवैभवम् । सिद्धात्मनां गुणग्रामं सर्वज्ञज्ञानगोचरम् ॥ ८१॥ अर्थ-जिसका माहात्म्य वचनोंसे कहने योग्य नहीं है और जिसके अनन्त ज्ञानका विभव है, ऐसे सिद्ध परमेष्ठीके गुणोंका समूह सर्वज्ञके ज्ञानके गोचर है ।। ८१ ॥ परन्तु वहां भी इतना विशेष है कि स खयं यदि सर्वज्ञासम्यग्ते समाहितः। तथाप्येति न पर्यन्तं गुणानां परमेष्ठिनः ॥ ८२॥ अर्थ-सर्वज्ञ देव परमेष्ठीके गुणोंको जानते हैं परंतु यदि वे उन गुणोंको समाधानसहित अच्छी तरह कहें तो वे भी उनका पार पा नहीं सकेंगे । भावार्थ-वचनकी संख्या अल्प है और गुण अनन्त हैं इसलिये वे वचनोंसे नहीं कहे जा सकते ॥ ८२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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