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________________ ज्ञानार्णवः । सुरोरगनरैश्वर्यं शक्नकार्मुकसन्निभम् । सद्यः प्रध्वंसमायाति दृश्यमानमपि स्वयम् ॥ ३६॥ अर्थ-इस जगतमें जो सुर ( कल्पवासी देव), उरग (भवनवासी देव), और मनुप्योंके इन्द्र अर्थात् चक्रवर्तीपनेके ऐश्वर्य (विभव ) हैं, वे सब इन्द्रधनुपके समान हैं, अर्थात् देखनेमें तो अति सुंदर दीख पडते हैं; परन्तु देखते २ विलय जाते हैं ॥ २६ ॥ फिर अन्यप्रकार दृष्टान्तसे कहते हैं,- यान्त्येव न निवर्तन्ते सरितां यदूर्मयः। तथा शरीरिणां पूर्वा गता नायान्ति भूतयः ॥ ३७॥ अर्थ-जिस प्रकार नदीकी जो लहरें जाती हैं, वे फिर लौटकर कभी नहीं आती हैं। इसीप्रकार जीवोंकी जो विभूति पहिले होती है, वह नष्ट होनेके पश्चात् फिर लौटकर नहीं आती । यह प्राणी वृथा ही हर्षविपाद करता है ॥ ३७॥ आगे फिर इसी अर्थको सूचित करते हैं, कचित्सरित्तरंगाली गतापि विनिवर्तते । न रूपबललावण्यं सौन्दर्य तु गतं नृणाम् ॥ ३८॥ अर्थ-नदीकी लहरै कदाचित् कहीं लौट भी आती हैं, परन्तु मनुष्योंका गया हुआ रूप, वल, लावण्य और सौन्दर्य फिर नहीं आता। यह प्राणी वृथा ही उनकी आशा लगाये रहता है ॥ ३८॥ आगे फिर भी आयु और यौवनकी व्यवस्थाका दृष्टान्त देते हैं, गलत्येवायुरव्यग्रं हस्तन्यस्ताम्वुवत्क्षणे । नलिनीदलसंक्रान्तं प्रालेयमिव यौवनम् ॥ ३९ ॥ अर्थ-जीवोंका आयुर्वल तो अञ्जलिके जलसमान क्षण क्षणमे निरन्तर झरता है और यौवन कमलिनीके पत्रपर पड़े हुए जलबिंदुके समान तत्काल ढलक जाता है । यह प्राणी वृथा ही स्थिरताकी इच्छा रखता है ।। ३९ ॥ आगे मनोज्ञविषयोंकी व्यवस्थाका दृष्टान्त कहते हैं,. मनोज्ञविषयैः साई संयोगाः खप्नसन्निभाः। क्षणादेव क्षयं यान्ति वश्चनोडतबुद्धयः॥४०॥ अर्थ-जीवोंके मनोज्ञ विषयों के साथ संयोग खमके समान हैं, क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं। जिनकी बुद्धि ठगनेमें उद्धत है, ऐसे ठगोंकी भांति ये किंचित्काल चमत्कार दिखाकर फिर सर्वख हरनेवाले हैं ॥ ४० ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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