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________________ २२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ये प्राणीज़न अन्यान्य जन्मोंसे आ आकर कुलरूपी वृक्षोंपर वसते हैं, अर्थात् जन्म लेते हैं ॥ ३० ॥ और प्रातस्तरं परित्यज्य यथैते यान्ति पत्रिणः। खकर्मवशगाः शश्वत्तथैते कापि देहिनः ॥ ३१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार वे पक्षी प्रभातके समय उस वृक्षको छोड़कर अपना २ रस्ता लेते हैं, उस ही प्रकार ये प्राणी भी आयु पूर्ण होनेपर अपने २ कर्मानुसार अपनी २ गतिमें चले जाते हैं ।। ३१ ॥ फिर अन्य प्रकारसे कहते हैं, गीयते यत्र सानन्दं पूर्वाह्ने ललितं गृहे । तस्मिन्नेव हि मध्याहे सदुःखमिह रुद्यते ।। ३२॥ . अर्थ-जिस घरमें प्रभातके समय आनन्दोत्साहके साथ सुन्दर २ मंगलीक गीत गाये जाते हैं, मध्याह्रके समय उसी ही घरमें दुःखके साथ रोना सुना जाता है । तथा यस्य राज्याभिषेकश्रीः प्रत्यूषेऽत्र विलोक्यते। . तस्मिन्नहनि तस्यैव चिताधूमश्च दृश्यते ॥ ३३॥ अर्थ-प्रभातके समय जिसके राज्याभिषेककी शोभा देखी जाती है, उसी दिन उस राजाकी चिताका धुआं देखनेमें आता है । यह संसारकी विचित्रता है ॥ ३३ ॥ अब जीवोंके शरीरको अवस्था कहते हैं, अत्र जन्मनि निवृत्तं यैः शरीरं तवाणुभिः । प्राक्तनान्यत्र तैरेव खण्डितानि सहस्रशः ॥ ३४ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! इस संसारमें जिन परमाणुओंसे तेरा यह शरीर रचा गया है, उन्हीं परमाणुओंने इस शरीरसे पहिले तेरे हजारों शरीर खंड खंड किये हैं। भावार्थपुराने परमाणु तो इस शरीरमेंसे खिरते हैं और नये परमाणु स्थानापन्न होते जाते हैं। इस कारण वे ही परमाणु तो शरीरको रचते हैं और वे ही विगाड़नेवाले हैं। शरीरकी यह दशा है ॥ ३४ ॥ . शरीरत्वं न ये प्राप्ता आहारत्वं न येऽणवः। — भ्रमतस्ते चिरं भ्रातर्यन्न ते सन्ति तद्गृहे ॥ ३५ ॥ __ अर्थ-हे भाई ! तेरे इस संसारमें बहुत कालसे भ्रमण करते हुए जो परमाणु शरीरताको तथा आहारताको प्राप्त नहीं हुए, ऐसे बचे हुए परमाणु कोई भी नहीं हैं । भावार्थ-इस शरीरमें ऐसे परमाणु नहीं हैं, जो पहिले अनन्त परावर्तनमें शरीररूप वा आहाररूपसे ग्रहणकरनेमें नहीं आये हों ॥ ३५ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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