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________________ ४०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् त्रिकालविषयं साक्षाज्ज्ञानमस्योपजायते । विश्वतत्त्वप्रबोधश्च सतताभ्यासयोगतः ॥ ९३ ॥ अर्थ-इस विद्याका ध्यान करनेवालेके निरंतर अभ्यास करनेसे समस्त तत्त्वोंका ज्ञान और त्रिकालविषयसाक्षात्ज्ञान कहिये केवलज्ञान उत्पन्न होताहै ॥ ९३ ॥ शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरास्तथान्ये व्यन्तरादयः। ध्यानविध्वंसकारो येन तद्धि प्रपश्यते ॥ ९४॥ अर्थ-अब ध्यानीके उपसर्ग करनेवाले क्रूरजन्तु तथा ध्यानको नाश करनेवाले व्यन्तरादिक जिस ध्यानसे उपशमताको प्राप्त होते हैं उस ध्यानका विस्तारसे वर्णन करते हैं ॥ ९४ ॥ दिग्दलाष्टकसम्पूर्ण राजीवे सुप्रतिष्ठितम् । स्मरत्वात्मानमत्यन्तस्फुरद्रीष्मार्कभास्करम् ॥ ९५ ॥ प्रणवाद्यस्य मन्त्रस्य पूर्वादिषु प्रदक्षिणम् । विचिन्तयति पत्रेषु वर्णैकैकमनुक्रमात् ॥ ९६ ॥ अधिकृत्य छदं पूर्व सर्वाशासम्मुखः परम् । स्मरत्यष्टाक्षरं मन्नं सहस्रक शताधिकम् ॥ ९७ ॥ प्रत्यहं प्रतिपत्रेषु महेन्द्राशाद्यनुक्रमात् । अष्टरानं जपेद्योगी प्रसन्नामलमानसः ॥९८॥ तस्याचिन्त्यप्रभावेण क्रूराशयकलङ्किताः। त्यजन्ति जन्तवो दर्प सिंहनस्ता इव द्विपाः ॥ १९ ॥ अर्थ-आठ दिशा संबंधी आठ पत्रोंसे पूर्ण कमलमें भले प्रकार स्थापित और अ. त्यन्त स्फुरायमान ग्रीष्मऋतुके सूर्यके समान देदीप्यमान आत्माको स्मरण करै ॥ ९५ ॥ प्रणव है आदिमें जिसके ऐसे मंत्रको पूर्वादिक दिशाओंमें प्रदक्षिणारूप एक एक पत्रपर अनुक्रमसे एक एक अक्षरका चिन्तवन करै. वे अक्षर “ॐ णमो अरहंताणं" ये हैं॥९६॥ इनमेंसे प्रथम पत्रको मुख्य करके, सर्व दिशाओंके सन्मुख होकर, इस अष्टाक्षर मंत्रको ग्यारहसै बार चिन्तवन (ध्यान ) करै ॥ ९७ ॥ इस प्रकार प्रतिदिन प्रत्येक पत्रमें पूर्व दिशादिकके अनुक्रमसे आठ रात्रिपर्यन्त प्रसन्न मन होकर, जपै ।। ९८ ॥ उसके अचिन्त्य प्रभावसे क्रूरचित्त जीव, सिंहसे भयभीत होकर जिस प्रकार हाथी गर्व छोड़ देते हैं उसी प्रकार अपना गर्व छोड़ देते हैं ॥ ९९ ॥ अष्टराने व्यतिक्रान्ते कमलस्यास्य वर्तिनः । निरूपयति पत्रेषु वर्णानेताननुक्रमात् ॥ १०॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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