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________________ ज्ञानार्णवः । ४०३ अर्थ - इन तीन अक्षरोंको नासिकाके अग्रभागमें अत्यन्त लीन करता हुआ ध्यानी अणिमा महिमादिक आठ ऋद्धियोंको प्राप्त होकर, तत्पश्चात् अति निर्मल ज्ञानको (केवल ज्ञानको ) प्राप्त होता है || ८७ ॥ शङ्खेन्दुकुन्दधवला ध्याता देवास्त्रयो विधानेन । जनयन्ति सर्वविषयं योधं कालेन तद्ध्यानात् ॥ ८८ ॥ अर्थ - पूर्वोक्त ये तीन देव (अक्षर) शंखके समान, कुन्दके पुप्पसमान तथा चंद्रमासमान विधानपूर्वक ध्याये जावें तो इनके ध्यानसे कितने ही कालमें समस्त विषयोंका ज्ञान करानेवाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है ॥ ८८ ॥ प्रणवयुगलस्य युग्मं पार्श्वे मायायुगं विचिन्तयति । - मूर्द्धस्थं हंसपदं कृत्वा व्यस्तं वितन्द्रात्मा || ८९ ॥ अर्थ - प्रणवयुगल कहिये दो ओंकारका युग्म और दोनो तरफ दो मायायुगल ह्रीं ह्रीं ऐसे और इनके उपरि हंसपद रखकर, प्रमादरहित होकर ध्यानी भिन्न भिन्न चिंतवन करै. वह मंत्र 'ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं हंसः ' ऐसा है ॥ ८९ ॥ ततो ध्यायेन्महाबीजं स्त्रीकार छिन्नमस्तकम् । अनाहतयुतं दिव्यं विस्फुरन्तं मुखोदरे ॥ ९० ॥ अर्थ-तत्पश्चात् छिन्नमस्तक महावीज जो 'स्त्रीं' ऐसा अक्षर है उसको अनाहतसहित दिव्यमुखपर स्फुरायमान होता हुआ चितवन करै ॥ ९० ॥ श्रीवीरवदनोद्गीर्ण विद्यां चाचिन्त्यविक्रमाम् । कल्पवल्ली मिवाचिन्त्यफल संपादनक्षमाम् ॥ ९१ ॥ अर्थ — और श्रीवर्द्धमान भगवानके मुखसे निकली हुई विद्याको चिन्तवन करे. कैसी है वह विद्या अचिन्त्य पराक्रमवाली और कल्पवेलकी समान अचिन्त्य फल देने में समर्थ है. ऐसी विद्या “ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारिस्से स्वाहा " तत्पश्चात् ऐसा मंत्र है “ॐ ह्रीं स्वर्ह नमो नमोऽहंताणं हीं नमः" ऐसे अक्षर हैं ॥ ९१ ॥ आर्या । विद्यां जपति य इमां निरन्तरं शान्तविश्व विस्पन्दः । अणिमादिगुणाँल्लब्ध्वा ध्यानी शास्त्रार्णवं तरति ॥ ९२ ॥ अर्थ - जो ध्यानी शान्तवेग निश्चल होकर इस विद्याको निरन्तर जपता है वह अणिमादिक गुणों को प्राप्त होकर, शास्त्रसमुद्रके पार हो जाता है अर्थात् श्रुतकेबली होता है ॥ ९२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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