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________________ ३८६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्रग्धरा । इत्थं यत्रानवा स्मरति नवसुधासान्द्रचन्द्रांशुगौरं श्रीमत्सर्वज्ञकल्पं कनकगिरितटे बीतविश्वप्रपञ्चम् । आत्मानं विश्वरूपं त्रिदशगुरुगणैरप्यचिन्त्यप्रभावं तत्पिण्डस्थं प्रणीतं जिनसमयमहाम्भोधिपारं प्रयातैः ॥ ३२॥ अर्थ-उक्त प्रकारसे जिस पिंडस्थ ध्यानमें निर्दोष, नये अमृतसे भीगीहुई चन्द्रमाकी किरणसदृश-गोरा वर्ण, श्रीमत्सर्वज्ञ भगवान् समान तथा मेरु गिरिके तट वा शिखरपर बैठा, बीते हैं समस्त प्रपंच जिसके ऐसे, तथा विश्वरूप समस्त ज्ञेय पदार्थों के आकार जिसमें प्रतिबिम्बित हो रहे हैं ऐसे देवेंद्रोंके समूहसे भी जिसका अधिक प्रभाव हो ऐसे आत्माका जो चिन्तवन किया जाय उसको जिनसिद्धान्तरूपी महासमुद्रके पार पहुँचनेवाले मुनीश्वरोंने पिंडस्थ ध्यान कहा है ॥ ३२ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् । विद्यामण्डलमन्त्रयन्त्रकुहकक्रूराभिचाराः क्रियाः सिंहाशीविषदैत्यदन्तिशरभा यान्त्येव निःसारताम् । शाकिन्यो ग्रहराक्षसप्रभृतयो मुञ्चन्त्यसद्वासना एतद्ध्यानधनस्य सन्निधिवशाहानोर्यथा कौशिकाः ॥ ३३॥ अर्थ-जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेपर उलूक (घूधू) भाग जाते हैं उसी प्रकार इस पिंडस्थ ध्यानरूपी धनवालेके समीप होनेसे विद्या, मंडल, मंत्र, यन्त्र, इन्द्रजालके आश्चर्य (प्रसिद्ध कपट) क्रूर अभिचार (मरणादि) स्वरूप क्रिया, तथा सिंह आशीविष (सर्प) दैत्य हस्ती अष्टापद ये सबही निःसारताको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् किसी प्रकारका भी उपद्रव नहीं करते तथा शाकिनी ग्रह राक्षस वगैरह भी खोटी वासनाको छोड़ देते हैं। भावार्थ-पिंडस्थ ध्यानके प्राप्त होनेवाले मुनिके निकट कोई दुष्ट जीव किसी प्रकारका भी उपद्रव नहीं कर सकते. समस्त विघ्न दूरसे नष्ट हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ ___ इस प्रकार पिंडस्थ ध्यानका वर्णन किया। यहां कोई ऐसा कहै कि ध्यान तो ज्ञानानन्दखरूप आत्माका ही करना है. इतनी पृथिवी, अमि, पवन, जलादिककी कल्पना किसलिये करनी ? उसको कहा जाता है कि___ यह शरीर पृथिवी आदि धातुमय है और सूक्ष्म पुद्गल कर्मके द्वारा उत्पन्न हुआ है, उसका आत्माके साथ संबंध है. इनके संबंधसे आत्मा द्रव्य भावरूप कलंकसे अनादि कालसे मलिन हो रहा है. इस कारण इस जीवके विना विचारे अनेक विकल्प उत्पन्न होते हैं. उन विकल्पोंके निमित्तसे परिणाम निश्चल नहीं होते. उनको निश्चल करनेके १ निर्विकल्प इत्यपि पाठः।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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