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________________ ज्ञानार्णवः । ततोऽन्दुसमं कान्तं पुरं वरुणलान्छितम् । ध्यायेत्सुधापयः पूरैः प्लावयन्तं नभस्तलम् || २६ ॥ अर्थ — तत्पश्चात् अर्द्धचन्द्राकार, मनोहर, अमृतमय जलके प्रवाहसे आकाशको बहाते हुए वरुणपुरका (वरुणमंडलका) चिन्तवन करै ॥ २६ ॥ तेनाचिन्त्यप्रभावेण दिव्यध्यानोत्थिताम्बुना | प्रक्षालयति निःशेषं तद्रजः कायसंभवम् ।। २७ ।। अर्थ - अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे दिव्य ध्यानसे उत्पन्न हुए नलसे शरीर के जलनेसे उत्पन्न हुए समस्त भस्मको प्रक्षालन करता है अर्थात् धोता है, ऐसा चिन्तवन करै ॥२७॥ इसप्रकार वारुणी धारणा है । अव तत्त्वरूपवती धारणाको कहते हैं,सप्तधातुविनिर्मुक्तं पूर्णचन्द्रामलत्विषम् । सर्वज्ञकल्पमात्मानं ततः स्मरति संयंमी ॥ २८ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् संयमी मुनि सप्त धातुरहित, पूर्णचन्द्रमाके समान है निर्मल प्रभा जिसकी ऐसे सर्वज्ञसमान अपने आत्माका ध्यान करै ॥ २८ ॥ ३८५ मृगेन्द्र विष्टरारूढं दिव्यातिशयसंयुतम् । कल्याणमहिमोपेतं देवदैत्योरगार्चितम् ॥ २९ ॥ विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । स्वं ततः पुरुषाकारं स्वाङ्गगर्भगतं स्मरेत् ॥ ३० ॥ अर्थ - तत्पश्चात् अपने आत्माको अतिशय युक्त, सिंहासनपर आरूढ, कल्याणकी महिमासहित देव दानव धरणेन्द्रादिसे पूजित है ऐसा चिन्तयनं करै ॥ २९ ॥ तत्पश्चात् विलय होगये हैं आठ कर्म जिसके ऐसा स्फुरायमान (प्रगट) अति निर्मल पुरुषाकार अपने शरीरमें प्राप्त हुए अपने आत्माका चितवन करै ( इस प्रकार तत्त्वरूपवती धारणा कहीं गई ) ॥ ३० ॥ आर्या । इत्यविरतं स योगी पिण्डस्थे जातनिश्चलाभ्यासः । शिवसुखमनन्यसाध्यं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥ ३१ ॥ अर्थ - इस प्रकार पिंडस्थ ध्यानमें जिसका निश्चल अभ्यास होगया है वह ध्यानी मुनि अन्य प्रकारसे साधनेमें न आवे ऐसे मोक्षके सुखको शीघ्र ही (अल्प समय में ही ) प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥ १ 'शुद्धधीः' इत्यपि पाठः ४९
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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