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________________ ज्ञानार्णवः। ३७५ एतानि सप्त सैन्यानि पालितान्यमरेश्वरैः। नमन्ति ते पवन्दं नतिविज्ञप्तिपूर्वकम् ॥ १५६ ॥ समग्रं स्वर्गसाम्राज्यं दिव्यभूत्योपलक्षितम् । पुण्यैस्ते सम्मुखीभूतं गृहाण प्रणतामरम् ॥ १५७ ॥ इति वादिनि सुलिग्धे सचिवेऽत्यन्तवत्सले। अवधिज्ञानमासाद्य पौर्वापर्यं स वुद्ध्यति ॥ १५८ ॥ अर्थ-यदि कोई मनुष्य सौधर्म स्वर्गमें इन्द्र उत्पन्न होता है तो उसका मन्त्री सबकी तरफसे इस प्रकार कहता है कि हे नाथ ! आपने यहां उत्पन्न होकर इस वर्गको पवित्र किया सो आज हम धन्य हुए, हमारा जीवन भी आज सफल हुआ ॥ १४१ ॥ हे नाथ! आप प्रसन्न हूजिये, चिरंजीव रहिये, हे देव! आपका उत्पन्न होना पुण्यरूप है, पवित्र है, आप इस खगलोकके खामी इजिये ॥ १४२ ॥ यह सौधर्म नामा महाखर्ग है, सैंकड़ों देवोंसे पूजित है. यह खर्ग सर्वदेवोंके कल्याणरूप समुद्रको बढ़ानेके लिये चन्द्रमाके समान है ।। १४३ ॥ यह सौधर्म नामा स्वर्ग ऐसा है कि इसमें जो इंद्र उत्पन्न होता है उसका ईशान इन्द्र आदि समस्त देव परमोत्सव करते हैं ॥ १४४ ॥ इस वर्गमें वांछित पदार्थ भोगने योग्य हैं. यहां नित्य नया यौवन है, अविनश्वर लक्ष्मी है, निरन्तर सुखही सुख है ॥ १४५ ॥ तथा यह खर्गीय विमान जहां जाना चाहै वहीं जा सकता है. इसका दर्शन अति मनोहर है. यह देवोंकी मंडली ( समा) आपके चरणकमलोंमें नम्रीभूत है ॥ १४६ ॥ ये मनोहर अप्सराओंसे भरे हुए चन्द्रकान्तके समान मनोहर आपके महल हैं. ये रत्नमयी वापिकायें हैं. ये क्रीडानदिये तथा पर्वत हैं ॥ १४७॥ यह सभाभवन है सो नम्रीभूत देवोंके द्वारा सेवा करने योग्य है, पूजित है. यह रलमयी दीपकोंसे प्रकाशमान पुप्पसमूहोंसे शोभित है ॥ १४८ ॥ और विनीत चतुर वेशकी धरनेवाली कामरूपिणी सुंदर स्त्रियें नृत्य संगीतादि रसमें उत्सुक होकर आपके सामने नृत्य करनेके लिये आपकी आज्ञाकी प्रतीक्षा कर रही हैं ॥ १४९ ॥ तथा यह आपका छत्र है. यह आपका पूजनीय सिंहासन है. यह चामरोंका समूह है. ये विजयकी ध्वनायें हैं ॥१५०॥ और ये सब आपकी अग्रमहिषी अर्थात् पट्टदेवियें हैं. ये श्रेष्ठ देवांगनाओंद्वारा वंदने योग्य हैं तथा इन्द्रके ऐश्वर्यको तृणकी समान समझनेवाली हैं ॥ १५१ ॥ तथा शृंगाररूपी समुद्रकी लहरोंके समान चंचल हैं. विलासके कारण जिनकी भौंहे प्रफुल्लित हैं और लीलारूपी अलङ्कारसे पूरित हैं. सो हे नाथ! ये आपके चरणों में समर्पित हैं ॥ १५२ ।। इन पट्टदेवियोंके शरीरकी शोभा अनुपम हैं, क्योंकी इनका शरीर योग्य निर्मल स्निग्ध पवित्र परमाणुओंके द्वारा बना हुआ है ।। १५३ ॥ हे नाथ! यह आपका महामनबाला ऐरावत नामा हस्ती है. यह अणिमा महिमादि आठ गुणोंके ऐश्वर्यसे समस्त प्रकारकी विक्रियारूप
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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