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________________ ज्ञानार्णवः । प्राकारपरिखावप्रगोपुरोत्तुङ्गतोरणैः । चैत्युद्रुमसुरागारैर्नगर्यो रत्नराजिताः ॥ १०७ ॥ अर्थ - तथा उन स्वर्गीमें जो नगरी हैं वे कोट, खाई, बड़े दरवाजों और ऊंचे तोरणोंसे तथा चैत्य, वृक्ष; और देवोंके मंदिर आदिकसे रत्नमयी शोभती हैं ॥ १०७ ॥ इन्द्रायुधश्रियं धत्ते यत्र नित्यं नभस्तलम् । हपग्रलग्नमाणिक्यमयूखैः कर्युरीकृतम् ॥ १०८ ॥ ३६९ अर्थ- -- तथा खर्गो में आकाश महलोंके अग्रभागमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे विचित्र वर्णका होकर इन्द्रधनुपकीसी शोभाको धारण किये हुए होता है ॥ १०८ ॥ सप्तभिस्त्रिदशानी कैर्विमानैरङ्गनान्वितैः । कल्पद्रुमगिरीन्द्रेषु रमन्ते विबुधेश्वराः ॥ १०९ ॥ अर्थ - खर्गीके इन्द्र सात प्रकारकी देवसेनाओंसे तथा देवांगनासहित विमानोंके द्वारा कल्पवृक्षों तथा क्रीडावनोंमें रमते हैं ( आनन्द करते हैं ) ॥ १०९ ॥ हस्त्यश्वरथयापातवृषगन्धर्वनर्तकि । सप्तानीकानि सन्त्यस्य प्रत्येकं च महत्तरम् ॥ ११० ॥ अर्थ - हस्ती, घोड़े, रथ, पयादे, बैल, गन्धर्व, नर्त्तकी इसप्रकार सात प्रकारकी सेना इन्द्रकी होती है सो प्रत्येक एकसे एक बढ़कर है ॥ ११० ॥ शृङ्गारसारसंपूर्णा लावण्यवनदीर्घिकाः । पीनस्तनभराक्रान्ताः पूर्णचन्द्रनिभाननाः ॥ १११ ॥ विनीताः कामरूपिण्यो महर्द्धिमहिमान्विताः । हावभावविलासाढ्या नितम्वभरमन्धराः ॥ ११२ ॥ मन्ये शृङ्गारसर्वस्वमेकीकृत्य विनिर्मिताः । स्वर्गवासविलासिन्यः सन्ति मूर्ता इव श्रियः ॥ ११३ ॥ अर्थ- उन स्वर्गीमें विलासिनी देवांगनायें शृंगारका सार है जिनके ऐसी लावण्यरूपी जलकी वापिकाही हैं तथा पीन कुचोंके भारसहित हैं. जिनके मुख पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान हैं. विनीत हैं, चतुर हैं, महाऋद्धिकी शोभासहित हैं. मुखके हावभाव चित्तविकार विलास, भ्रूविकार आदिसे भरी हुई हैं; नितम्वोंके भयसे धीरगतिवाली हैं. आचार्य महाराज उत्प्रेक्षा करते हैं कि वे देवांगनायें मानों श्रृंगारका सर्वत्र एकत्र करकेही बनाई गईं हैं, जिससे मूर्तिमान् लक्ष्मीसमान ही शोभती हैं ॥ १११-११२-११३ ॥ गीतवादित्रविद्यासु शृङ्गाररसभूमिषु । परिरम्भादिसर्वेषु स्त्रीणां दाक्ष्यं स्वभावतः ॥ ११४ ॥ ४७
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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