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________________ ज्ञानार्णवः। ३६१ अर्थ-फिर विचारता है कि यह धर्मरूप वन्धु (हितू) ऐसा है कि साथ जाता है और जहां जाता है वहीं रक्षा करता है और यह मित्र नियमसे हित ही करता है, दुःखका नाश करके सुख देता है. ऐसे धर्मरूपी मित्रको भैने पोषाही नहीं और जिनको मित्र समझके पोपा उनमेंसे कोई एक भी साथ नहीं आया ॥ ५७ ॥ परिग्रहमहाग्राहसंग्रस्तेनार्तचेतसा। न दृष्टा यमशार्दूलचपेटा जीवनाशिनी ॥ ५८॥ अर्थ-फिर विचारता है कि परिग्रहरूपी महाग्राहसे पकड़े हुए पीडितचित्त होकर मैंने जीवको नाश करनेवाली यमरूपी शार्दूलकी चपेट नहीं देखी अर्थात् परिग्रहमें आसक्त होकर, निरंतर पाप ही करता रहा ॥ ५८ ॥ पातयित्वा महाघोरे मां श्वभ्रेऽचिन्यवेदने । क गतास्तेऽधुना पापा मद्वित्तफलभोगिनः ॥ ५९॥ अर्थ-फिर विचारता है कि जो कुटुंबादिक मेरे उपार्जन किये हुए धनके फल भोगनेवाले थे वे पापी मुझे अचिन्त्य वेदनामय इस घोर नरकमें डालकर अब कहां चले गये ? यहां दुःखमें कोई साथी न हुआ ॥ ५९ ॥ इत्यजस्रं सुनुःखार्ती विलापमुखराननाः । शोचन्ते पापकमोणि वसन्ति नरकालये ॥६॥ अर्थ-इस पूर्वोक्त प्रकारसे नारकी जीव निरन्तर महादुःखसे पीडित हुए, मुखसे पुकारते हुए, विलाप करते हुए अपने पापकार्योंको स्मरण करकरके; शोच करते हैं और नरकमंदिरमें वसते हैं ।। ६० ॥ इति चिन्तानलेनोचैर्दह्यमानस्य ते तदा । धावन्ति शरशूलासिकराः क्रोधाग्निदीपिताः ।। ६१ ॥ वैरं पराभवं पापं स्मारयित्वा पुरातनम् । निर्भत्स्य कटुकालापैः पीडयन्त्यतिनियम् ।। ६२ ।। अर्थ-इस पूर्वोक्तप्रकारकी चिन्तारूप अमिसे अतिशय जलते हुए नारकीके ऊपर उसी समय अन्य पुराने नारकी वाण, शूल, तलवार लिये हुए, क्रोधरूपी अग्निसे जलते हुए दौड़ते हैं और पूर्वके पाप तथा वैरको याद कराते हुए, कटु वचनोंसे तिरस्कार करके, उसे अतिनिर्दयतासे जिसप्रकार बनता दुःख देते हैं ॥ ६१-६२ ॥ उत्पाटयन्ति नेत्राणि चूर्णयन्त्यस्थिसंचयम् । दारयन्त्युदरं क्रुद्धास्त्रोटयन्त्यन्त्रमालिकाम् ॥ १३ ॥ . अर्थ-वे पुराने नारकी उस विलाप करते हुए नये नारकीके नेत्रोंको उखाड़ते हैं,
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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