________________
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
आश्रयन्ति यथा वृक्षं फलितं पत्रिणः पुरा । फलापाये पुनर्यान्ति तथा ते स्वजना गताः ॥ ५१ ॥
अर्थ - फिर ऐसा विचारता है कि जिसप्रकार पक्षी पहिले तो फले हुए वृक्षका आश्रय करते हैं परन्तु जब फलोंका अभाव हो जाता है तब सब पक्षी उड़ जाते हैं, उसी प्रकार मेरे वजन गण जाते रहे. ये दुःख भोगनेको - कोई साथ नहीं आया ॥ ५१ ॥ शुभाशुभानि कर्माणि यान्त्येव सह देहिभिः ।
स्वार्जितानीति यत्प्रोचुः सन्तस्तत्सत्यतां गतम् ॥ ५२ ॥
?
अर्थ - फिर क्या विचारता है कि जो सत्पुरुष कहते थे कि अपने उपार्जन किये शुभ अशुभ कर्म हैं वे ही जीवके साथ जाते हैं अन्य कोई साथ नहीं जाता सो वह आज सत्य प्रतीत हुआ ॥ ५२ ॥
धर्म एव समुद्धर्तुं शक्तोऽस्माच्छुभ्रसागरात् । नवपि पापेन मया सम्यक्पुरार्जितः ॥ ५३ ॥
३६०
अर्थ - फिर विचारता है कि इस नरकरूपी समुद्रसे उद्धार करनेके लिये एक धर्म ही समर्थ है; परन्तु मुझ पापिष्ठने पहिले खप्न में भी उसका उपार्जन नहीं किया ॥ ५३ ॥ सहायः कोऽपि कस्यापि नाभून्न च भविष्यति ।
मुक्तकं प्राकृतं कर्म सर्वसत्वाभिनन्दकम् ॥ ५४ ॥
अर्थ- फिर विचारता है कि इस संसार में कोई किसीका सहायक न है, न हुआ और न होगा; किंतु समस्त जीवोंको आनंद करनेवाला अर्थात् जिसमें सबकी दया हो ऐसा शुभकर्म ही सहायक होता है ॥ ५४
तत्कुर्वन्त्यधमाः कर्म जिह्नोपस्थादिदण्डिताः ।
येन श्वभ्रेषु पच्यन्ते कृतार्तकरुणखनाः ॥ ५५ ॥
अर्थ - फिर यह विचारता है कि जो अधम ( पापी ) पुरुष जिह्वा उपस्थेन्द्रियसे दण्डित होते हैं वे ऐसा कर्म करते हैं कि जिस कर्मसे वे पापी पीडित होकर, नरकों में पचाये जाते हैं रोते हैं वा शब्द करते हैं; जिसको सुननेसे अन्यके दया उपज आवै ॥ ५५ ॥
चक्षुरुन्मेषमात्रस्य सुखस्यार्थे कृतं मया ।
तत्पापं येन सम्पन्ना अनन्ता दुःखराशयः ॥ ५६ ॥ अर्थ - फिर विचारता है कि मैने नेत्रोंके टिमकारमात्र सुख के लिये ऐसा पाप किया कि जिससे अनन्त दुःखोंकी राशि प्राप्त हुई ॥ ५६ ॥
याति सार्द्धं ततः पाति करोति नियतं हितम् ।
हन्ति दुःखं सुखं दन्ते यः स बन्धुर्न योषितः ॥ ५७ ॥