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________________ ज्ञानार्णवः। . ३५१ मालिनी। इति विविधविकल्पं कर्म चित्रस्वरूपम् प्रतिसमयमुदीण जन्मवर्त्यङ्गभाजाम् । स्थिरचरविषयाणां भावयन्नस्ततन्द्रो दहति दुरितकक्षं संयमी शान्तमोहः ॥ ३०॥ अर्थ-पूर्वोक्तप्रकार अनेक हैं भेद (विकल्प) जिसमें ऐसे कर्मका खरूप संसारमें वर्तनेवाले प्राणी स्थावर त्रसोंके समय समयप्रति उदयरूप है. उसको शान्तमोह संयमी मुनि प्रमादरहित होकर, विचारता हुआ पापरूपी वनको दग्ध करता है ॥ ३० ॥ शार्दूलविक्रीडितम् । इत्यं कर्मकटुमपाककलिताः संसारघोरार्णवे __जीवा दुर्गतिदुःखवाडवशिखासन्तानसंतापिताः। . मृत्यूत्पत्तिमहोर्मिजालनिचितामिथ्यात्ववातेरिताः क्लिश्यन्ते तदिदं स्मरन्तु नियतं धन्याः खसिद्ध्यर्थिनः ॥३१॥ अर्थ-इसप्रकार भयानक संसाररूप समुद्रमें जो जीव हैं ते ज्ञानावरणादिक कर्मों के कटुपाकसे (तीव्रोदयसे) संयुक्त हैं वे दुर्गतिके दुःखरूपी बडवानलकी ज्वालाके संतानसे संतापित हैं तथा मरण जन्मरूपी वड़ी लहरके समूहसे परिपूर्ण मरे हैं तथा मिथ्यात्वरूप पवनके प्रेरे हुये क्लेश भोगते हैं सो जो धन्य पुरुष हैं वे अपनी मुक्तिकी सिद्धिके लिये इस विपाकविचयध्यानको सरण करें (ध्यावें) ॥ ३१ ॥ इसप्रकार विपाकविचय ध्यानका वर्णन किया । इसका संक्षेप यह है कि ज्ञानावरणादिक कर्म जीवोंके अपने तथा परके निरन्तर उदयमें आते हैं सो यह विपाक है. इसको चिन्तवन करनेसे परिणाम विशुद्ध हो जानेपर कर्मोंके नाश करनेका उपाय करै तब मुक्त होता है । दोहा। दुख सुख आये आपके, कर्मविपाक विचार । है नीको यह ध्यानमवि, करो दुःखहरतार ॥ ३५ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे विपाकविचय वर्णनं नाम पञ्चत्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३५॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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