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________________ ३५० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-तथा गोत्र नाम कर्म जीवोंके समूहको ऊंच नीच गोत्रमें उत्पन्न कराकर, सर्वप्रकारसे अपना फल देता है ॥ २४ ॥ निरुणद्धि स्वसामर्थ्यादानलाभादिपञ्चकम् । विघ्नसन्ततिविन्यासैर्विघकृत्कमे देहिनाम् ॥ २५ ॥ अर्थ-आठवाँ कर्म अन्तराय है सो विघ्न करनेवाला है । वह अपनी सामर्थ्यसे (उदयसे ) जीवोंके प्राप्त होनेवाले शक्ति दान लाभ भोग उपभोगोंमें विघ्नसन्ततिकी रचना करता है अर्थात् दानभोगादिकमें अन्तराय डालकर, उनको रोकता है ॥ २५ ॥ मन्दवीर्याणि जायन्ते कर्माण्यतिवलान्यपि । अपकपाचनायोगात्फलानीव वनस्पते ॥ २६ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त अष्ट कर्म अतिशय बलिष्ठ हैं तथापि जिसप्रकार वनस्पतिके फल विना पके भी पवनके निमित्तसे (पाल आदिसे ) पक जाते हैं उसी प्रकार इन काँकी स्थिति पूरी होनेसे पहिले भी तपश्चरणादिकसे मन्दवीर्य ( अल्पफल देनेवाले ) हो जाते हैं ॥ २६ ॥ उपेन्द्रवज्रा। अपक्कपाकः क्रियतेऽस्ततन्द्रैस्तपोभिरुग्रैर्वरशुडियुक्तैः । क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतान्ताकरणैमुनीन्द्रैः ॥ २७ ॥ अर्थ-नष्ट हुआ है प्रमाद जिनका और सम्यक्प्रकारसे संवररूप हुआ है चित्त जिनका ऐसे मुनीन्द्र उत्कृष्ट विशुद्धतासहित तपोंसे अनुक्रमसे गुणश्रेणी निर्जराका आश्रय करके विना पके कर्मोंकी भी पकाकर स्थिति पूर्ण हुए विना ही निर्जरा करते हैं ॥ २७ ॥ द्रव्याद्युत्कृष्टसामग्रीमासाद्योग्रतपोवलात् । कर्माणि घातयन्त्युच्चैस्तूर्यध्यानेन योगिनः ॥ २८ ॥ अर्थ-योगीश्वर द्रव्यक्षेत्रे कालभावकी उत्कृष्ट सामग्रीको प्राप्त होकर, तीव्र तपके बलसे इस विपाक विचय नामा ध्यानके पश्चात् चौथे संस्थानविचय नामा ध्यानसे कर्मोंको अतिशयताके साथ नष्ट करते हैं ॥ २८॥ विलीनाशेषकर्माणि स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । .. खं ततः पुरुषाकारं खाङ्गगर्भगतं स्मरेत् ॥ २९॥ अर्थ उक्त विधानसे कर्मोंकी निर्जरासे विलय हुए हैं समस्त कर्म जिसके ऐसा स्कुरायमान निर्मल पुरुषाकारखरूप अपने अंगमें ही प्राप्त हुए आत्माको स्मरण करता है अर्थात् चिन्तवन (ध्यान) करता है ॥ २९॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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