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________________ ज्ञानार्णवः । ३४१ येनैते निपतन्ति वादिगिरयस्तुष्यन्ति योगीश्वराः भव्या येन विदन्ति निर्वृतिपदं मुश्चन्ति मोहं वुधाः । यद्वन्धुर्यमिनां यदक्षयसुखस्याधारभूतं नृणाम् तहोकद्धयशुद्धिदं जिनवचा पुष्याद्विवेकश्रियम् ॥ २१ ॥ · अर्थ जिसके द्वारा प्रसिद्ध वादीरूप पर्वत गिरते हैं अर्थात् खंडखंड हो जाते हैं तथा जिसके द्वारा योगीश्वर प्रसन्न होते हैं और जिसके द्वारा भव्य जीव मोक्षपदको जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं तथा जिसको पढ़कर, पंडितजन संसारके मोहको छोड़ देते हैं तथा जो वचन संयमी मुनियोंका बंधु (हित करनेवाला) है तथा जो पुरुषोंके अविनाशी सुखका आधारभूत है. इसप्रकार दोनों लोकोंकी शुद्धताका देनेवाला जिनेन्द्र भगवानका वचन भव्य जीवोंकी विकरूपी श्री पुष्ट करे. इसप्रकार यह आशीर्वाद है ।। २१॥ सर्वज्ञाज्ञां पुरस्कृत्य सम्यगर्थान् विचिन्तयेत् । यत्र तळ्यानमान्नातमाज्ञाख्यं योगिपुङ्गवैः ॥ २२॥ अर्थ-जिस ध्यानमें सर्वज्ञकी आज्ञाको अग्रेसर (प्रधान) करके पदार्थोंको सभ्यप्रकार चितवन करै (विचार) सो मुनीश्वरोंने आज्ञाविचय नाम धर्मध्यान कहा है ॥२२॥ इसप्रकार आज्ञाविचयनामक धर्मध्यानका प्रथम भेद कहा । दोहा । श्रीजिन-आशामें कह्यो, वस्तुखरूप जु मानि । चित्त लगाव तासुमे, आज्ञाविचय सु.जानि ॥ ३२ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे आज्ञाविचयध्यान- . . वर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३३ ॥ अथ चतुस्त्रिंशं प्रकरणम् । आगे अपायविचय नामा धर्मध्यानके दूसरे भेदका वर्णन करते हैं,- . अपायविचयं ध्यानं तद्वदन्ति मनीपिणः।। अपायः कर्मणां यत्र सोपायः स्मर्यते वुधैः ॥ १॥ अर्थ-जिस ध्यानमें कीका अपाय (नाश) हो, तथा सोपाय कहिये पंडितजनोंकरके चिन्तवन किया जाय कि इन कर्मोंका नाश किस उपायसे होगा ? इसप्रकार जिसमें चिन्तन करै उस ध्यानको बुद्धिमान् पुरुषोंने अपायविचय कहा है ॥ १॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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