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________________ ज्ञानार्णवः। ३३१ तक्रयेजगदुन्मत्तं प्रागुत्पन्नात्मनिश्चयः । पश्चाल्लोष्टमिवाचष्टे तदृढाभ्यासबासितः ॥ ८४ ॥ अर्थ-जिसको आत्माका निश्चय होगया है ऐसा ज्ञानी प्रथम तो इस जगतको उन्मत्तवत् विचारता है, तत्पश्चात् आत्माका दृढ अभ्यास करके पापाणके समान देखता है । भावार्थ-जव ज्ञान उत्पन्न होता है उस समय यह जगत् वावलासा दीखता है। तत्पश्चात् जब ज्ञानाभ्यास दृढ हो जाता है, तब वस्तु स्वभावके विचारसे जैसा है वैसा ही दीखता है अर्थात् उसमें इष्ट अनिष्ट भाव नहीं होता ॥ ८४ ॥ शरीराद्भिन्नमात्मानं शृण्वन्नपि वदन्नपि । तावन्न मुच्यते यावन्न भेदाभ्यासनिष्ठितः ।। ८५ ।। अर्थ-यह पुरुप आत्माको शरीरसे भिन्न सुनता हुआ भी तथा कहता हुआ भी जबतक इसके भेदाभ्यासमें निष्ठित (परिपक्क ) नहीं होता, तबतक इससे छूटता नहीं क्योंकि निरन्तर भेदज्ञानके अभ्याससे ही इसका ममत्व छूटता है ।। ८५ ॥ . व्यतिरिक्तं तनोस्तबद्भाव्य आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मनि । स्वप्मेऽप्ययं यथाऽभ्येति पुनर्नाङ्गेन संगतिम् ॥ ८६ ॥ अर्थ-आत्माको आत्माहीके द्वारा आत्मामें ही शरीरसे भिन्न ऐसा विचारना कि जिससे फिर यह आत्मा स्वममें भी शरीरकी संगतिको प्राप्त न हो अर्थात् मैं शरीर हूं ऐसी बुद्धि स्वममें भी न हो, ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ ८६ ।। यतो व्रतात्रते पुंसां शुभाशुभनिवन्धने । तभावात्पुनर्मोक्षो मुमुक्षुस्ते ततस्त्यजेत् ॥ ८७॥ अर्थ-तथा व्रत और अव्रत शुभ और अशुभ दो प्रकारके वंधोंके कारण हैं और शुभाशुभ कर्मके अभावसे मोक्ष होता है। इसकारण मुक्तिका इच्छुक मुनि इन व्रत और अव्रत दोनोंको ही त्यागता है अर्थात् इनमें करने न करनेका अभिमान नहीं करता ॥ ८७ ॥ मागसंयममुत्सृज्य संयमैकरतो भवेत् । ततोऽपि विरमेत्प्राप्य सम्यगात्मन्यवस्थितिम् ॥ ८८ ।। अर्थ-व्रत अव्रतका त्यागना कहा है सो इसप्रकार त्यागै कि प्रथम तौ असंयमको छोड़, संयममें रक्त हो; तत्पश्चात् सम्यक्प्रकारसे आत्मामें अवस्थितिको प्राप्त होकर, उस संयमसे भी विरक्त हो जावे अर्थात् संयमका ममत्व वा अभिमान न रक्खै ॥ ८८ ॥ जातिलिङ्गमिति बन्दमङ्गमाश्रित्य वर्तते । अङ्गात्मकश्च संसारस्तस्मात्तद्वितयं त्यजेत् ॥ ८९॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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