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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जनसंसर्गे वा चित्तपरिस्पन्दमनोभ्रमाः । उत्तरोत्तरबीजानि ज्ञानी जनस्ततस्त्यजेत् ॥ ७८ ॥ अर्थ - लोकका संसर्ग होनेसे वचन और चित्तका चलना और मनको भ्रम होता है. ये उत्तरोत्तर बीजखरूप हैं. अर्थात् लोकके संसर्गसे तौ परस्पर वचनालाप होता है और उस वचनालापसे चित्त चलायमान होता है और चित्त चलनेसे मनमें भ्रम होता है. इस कारण, ज्ञानी मुनि लोकके संसर्गको छोड़े । भावार्थ - लौकिक जनकी संगति न करै ॥७८॥ नग्रामादिषु स्वस्य निवासं वेत्यनात्मवित् । सर्वावस्थासु विज्ञानी स्वस्मिन्नेवास्तविभ्रमः ॥ ७९ ॥ अर्थ - जो अनात्मवित् हैं अर्थात् आत्माको नहीं जानते वे पर्वत ग्राम आदिमें अपना निवास जानते हैं और जो अस्तविभ्रम (ज्ञानी) हैं वे समस्त अवस्थाओं में अपने आत्मामें अपना निवासस्थान समझते हैं । भावार्थ — परमार्थसे परके आधेय आधार भावको नहीं जानते ॥ ७९ ॥ आत्मेति वपुषि ज्ञानं कारणं कायसन्ततेः । ३३० स्वस्मिन्वमिति विज्ञानं स्याच्छरीरान्तरच्युतेः ॥ ८० ॥ अर्थ - शरीरमें यह शरीर ही आत्मा है इस प्रकार जानना कायकी सन्तान अर्थात् आगामी परिपाटीका कारण है और अपने आत्मामें ही आत्मा है ऐसा ज्ञान इस शरीर से अन्य शरीर होनेके अभावका कारण है ॥ ८० ॥ आत्माऽऽत्मना भवं मोक्षमात्मनः कुरुते यतः । अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः ॥ ८१ ॥ अर्थ – यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसारको करता है और अपने द्वारा आप ही अपने लिये मोक्ष करता है; इसकारण आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपना गुरु है, यह प्रकटतया जानो- - पर तो बाह्यनिमित्तमात्र है ॥ ८१ ॥ पृथग् दृष्ट्वात्मनः कार्यं कायादात्मानमात्मवित् । तथा त्यजत्यशङ्कोऽङ्गं यथा वस्त्रं घृणास्पदम् ॥ ८२ ॥ अर्थ — आत्माका जाननेवाला ज्ञानी देहको आत्मासे भिन्न तथा आत्माको देहसे भिन्न देखकर ही निःशंक हो, ( देहको ) त्यागता है । जैसे प्राकृत पुरुष जब वस्त्र मलिन होकर, ग्लानिका स्थान होता है; तब उस वस्त्रको निःशंक हो, छोड़ देता है; उसीप्रकार यह देह भी ग्लानिका स्थान है इसकारण ज्ञानीको इसके त्यागनेमें कुछ भी शंका नहीं है ॥ ८२ ॥ अन्तर्दृष्ट्वाऽऽत्मनस्तत्त्वं बहिर्दृष्ट्वा ततस्तनुम् । उभयोर्भेदनिष्णातो न स्खलत्याऽऽत्मनिश्चये ॥ ८३ ॥ अर्थ - ज्ञानी आत्माके स्वरूपको अन्तरंग में देखकर और देहको बाह्यमें देखकर, दोनोंके भेदमें निष्णात कहिये निःसंदेह ज्ञाता होकर, आत्माके निश्चयमें नहीं डिगता अर्थात्, निश्चल अन्तरात्मा होकर रहता है ॥ ८३ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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