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________________ ३१८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-और जो निर्लेप है अर्थात् जिसके कर्मोंका लेप नहीं, निष्कल कहिये शरीररहित है, शुद्ध है, जिसके रागादिक विकार नहीं है, तथा जो निष्पन्न है अर्थात् सिद्धरूप है (जिसको कुछ करना नहीं, ) और अत्यन्त निवृत्त है अर्थात् अविनाशी सुखरूप है तथा निर्विकल्प है अर्थात् जिसमें भेद नहीं है ऐसे शुद्धात्माको परमात्मा कहा गया है ॥ ८॥ कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदम्बकात् । आत्मानमभ्यसेद्योगी निर्विकल्पमतीन्द्रियम् ॥९॥ अर्थ-यहां प्रश्न है कि यदि आत्मा ऐसा है तो आत्माको देहादिक पदार्थों के समूहसे पृथक् करके निर्विकल्प अतीन्द्रिय ऐसा किस प्रकार ध्यान करैः ॥९॥ उसका उत्तर कहते हैं, अपास्य बहिरात्मानं सुस्थिरेणान्तरात्मना । ध्यायेद्विशुद्धमत्यन्तं परमात्मानमव्ययम् ॥ १०॥ अर्थ-योगी मुनि बहिरात्माको छोड़कर भलेप्रकार स्थिर अन्तरात्मा होकर अत्यन्त विशुद्ध अविनाशी परमात्माका ध्यान करै ॥ १० ॥ सो ही कहते हैं, संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः । बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ॥ ११ ॥ अर्थ-जो बहिरात्मा है सो चैतन्यखरूप आत्माको देहके साथ संयोजन करता है (जोड़ता है) अर्थात् एक समझता है और जो ज्ञानी है (अन्तरात्मा है) सो देहसे देहीको (चैतन्यखरूप आत्माको) पृथक् ही देखता है. यही बहिरात्मा और अन्तरात्माके ज्ञानमें भेद है ॥ ११ ॥ अक्षदारैरविश्रान्तं खतत्त्वविमुखैभृशम् । व्यावृतो बहिरात्मायं वपुरात्मेति मन्यते ॥१२॥ अर्थ-यह बहिरात्मा आत्मस्वरूपसे अतिशयकरके निरन्तर विमुख इन्द्रियोंके द्वारा व्यापाररूप हुए शरीरको ही आत्मा मानता है ॥ १२ ॥ सुरं त्रिदशपर्यायैर्नृपर्यायैस्तथा नरम् । तिर्यञ्चं च तदङ्गे खं नारकाङ्गे च नारकम् ॥ १३ ॥ वेत्त्यविद्यापरिश्रान्तो मूढस्तन्न पुनस्तथा । किन्त्वमूत खसंवेद्यं तद्रूपं परिकीर्तितम् ॥ १४ ॥ अर्थ-अविद्यासे ( मिथ्याज्ञानसे) परिश्रान्त (खेदखिन्न) मूढ बहिरात्मा देवके पर्यायोसहित आत्माको तो देव मानता है और मनुष्यपर्यायोंसहित अपनेको मनुष्य मानता है तथा तिर्यंचके अंगमें रहते हुएको तिर्यंच और नारकीके शरीरमें रहते हुएको नारकी
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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