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________________ ३१७ ज्ञानार्णवः । पुरुषके आत्मामें निश्चय ठहरना नहीं होता. और अन्तरङ्गमें शरीर और आत्माको भिन्न २ करने व समझनेमें मोहको प्राप्त होकर भूल जाता है कि, इस देहमें द्रव्यइन्द्रिय, भावइन्द्रिय, द्रव्यमन, भावमन, दर्शन, ज्ञान, सुख, दुःख, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, अज्ञान आदि जो अनेक भाव दीखते हैं। इनमेंसे आत्मा कौनसा है इसप्रकार प्रम उत्पन्न होता है. इस कारण, पहिले आत्माका निश्चय करना चाहिये ॥ २ ॥ तयोर्भेदापरिज्ञानानात्मलाभः प्रजायते । तभावात्वविज्ञानसूतिः समेऽपि दुर्घटा ॥३॥ अर्थ-उस देह और आत्माके भेदविज्ञान विना आत्माका लाम (प्राप्ति) नहीं होता, और आत्माके लाभ विना भेदविज्ञानकी उत्पत्ति खममें भी दुर्घट, अर्थात् दुर्लभ है ॥ ३ ॥ __ अतः प्रागेव निश्चयः सम्यगात्मा मुमुक्षुभिः । अशेपपरपर्यायकल्पनाजालवर्जितः ॥ ४॥ अर्थ-इस कारण प्रथम ही मोक्षाभिलापियोंको समस्त परद्रव्योंकी पर्यायकल्पनाओंसे रहित आत्माका ही निश्चय करना चाहिये ॥ ४॥ त्रिप्रकारं स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः । पहिरन्तः परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणकैः ॥५॥ अर्थ-वह आत्मा समस्त देहधारियों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्माके भेदसे तीन प्रकारसे व्यवस्थित ( अवस्थारूप) है सो आगे कहे भेदोंसे जानना ॥ ५ ॥ आत्मवुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोहनिद्रास्तचेतनः ।। ६ ।। अर्थ-जिस जीवके शरीरादि परपदार्थोमं आत्माके भ्रमसे आत्मा बुद्धि हो कि यह मैं ही हूं अन्य अर्थात् पर नहीं है सो मोहरूपी निद्रासे अस्त हो गई है चेतना जिसकी ऐसा घहिरात्मा है ॥ ६॥ वहिर्भावानतिक्रम्य यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । - सोऽन्तरात्मा मतस्तज्जैर्विभ्रमध्वान्तभास्करैः ॥ ७॥ अर्थ-तथा जिस पुरुपके वाद्य भावोंको उल्लंघन करके आत्मामें ही आत्माका निश्चय हो सो विनमरूप अन्धकारको दूर करनेमें सूर्यके समान उस आत्माके जाननेवाले पुरुषोंने अन्तरात्मा कहा है ॥ ७ ॥ निलेपो निष्कला शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिर्वृतः। निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः॥८॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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