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ज्ञानार्णवः ।
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रहता है किन्तु छट्टे प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें निदानरहित तीन ही प्रकारका उत्पन्न होता है ॥ ३९ ॥
कृष्णनीलाद्य सल्लेश्यावलेन प्रविजृम्भते । इदं दुरितदावार्चिःप्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥ ४० ॥
अर्थ- - यह आर्तध्यान कृष्ण नील कापोत इन अशुभ लेश्याओंके वलसे प्रगट होता है सो पापरूपी दावाग्नि उत्पन्न करनेको इंधनके समान है ॥ ४० ॥
एतद्विनापि यत्नेन स्वयमेव प्रसूयते ।
अनाद्यसत्समुद्भूतसंस्कारादेव देहिनाम् ॥ ४१ ॥
अर्थ-यह आर्तध्यान जीवोंके अनादि कालके अप्रशस्तरूप संस्कारसे विना यत्नके स्वयमेव उत्पन्न होता है. अर्थात् — विना उपदेशके संस्कारवशतः अपने आप प्रगट होता है ॥ ४१ ॥
अनन्तदुःखसंकीर्णमस्य तिर्यग्गतेः फलम् ।
क्षायोपशमिको भावः कालञ्चान्तर्मुहूर्तकः ॥ ४२ ॥
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अर्थ – इस आर्तध्यानका फल अनन्त दुःखोंसे व्याप्त तिर्यंचगति है और यह भाव क्षायोपशमिक है और इसका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है. एक ज्ञेयपर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ही रहता है, तत्पश्चात् ज्ञेयान्तर होता है ॥ ४२ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् ।
शङ्काशोकभयप्रमादकल हचिंतन मोड्रान्तयः
उन्मादो विषयोत्सुकत्वमसकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमाः । मूर्छादीनि शरीरिणामचिरतं लिङ्गानि बाह्यान्यल"माधिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्यावर्णितानि स्फुटम् ॥ ४३ ॥
अर्थ - इस आर्तध्यानसे आश्रित चित्तवाले पुरुषोंके बाह्यचिह्न शास्त्रोंके पारगामी विद्वानोंने इस प्रकार कहे हैं कि प्रथम तो शङ्का होती है अर्थात् हर बातमें संदेह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है, सावधानी नहीं होती, कलह करता है, चित्तभ्रम हो जाता है, उद्भान्ति हो जाती है, चित्त एक जगह नहीं ठहरता, विपयसेवनमें उत्कंठा रहती है, निरन्तर निद्रागमन होता है, अंगमें जड़ता (शिथिलता ) होती है, खेद होता है, मूर्च्छा होती है. इत्यादि चिह्न आर्तध्यानी के प्रगट होते हैं ॥ ४३ ॥
इस प्रकार आर्तध्यानका वर्णन किया. यह अप्रशस्त ध्यान स्वयमेव विना उपदेश व संस्कारके उत्पन्न होता है, सो त्यागने योग्य है ॥
१ 'चिन्ताभ्रमान्तयः' इत्यपि पाटः ।