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________________ २६० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुनः। पूण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यजिनेन्द्रामराणां यदा. तैरेव वांछत्यहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । पूजासत्कारलाभप्रभृतिकमथवा याचते यद्रिकल्पैः स्थादात तन्निदानप्रभवमिह नृणां दुःखदावोगधाम ॥ ३५॥ अर्थ-जो प्राणी पुण्याचरणके समूहसे तीर्थंकरके अथवा देवोंके पदकी वांछा करै अथवा उन ही पुण्यचरणोंसे अत्यन्त कोपके कारण शत्रुसमूहरूपी वृक्षोंके उच्छेदनेकी वांछा करै तथा उन विकल्पोंसे अपनी पूजा प्रतिष्ठालाभादिककी याचना करै उसको निदानजनित आर्तध्यान कहते हैं. यह ध्यान भी जीवोंको दुःखरूपी अमिका तीव्र स्थान है ॥ ३५॥ इष्टभोगादिसिद्ध्यर्थ रिपुधातार्थमेव वा। यन्निदानं मनुष्याणां स्यादात तत्तुरीयकम् ॥ ३६ ॥ अर्थ-मनुष्योंके इष्ट भोगादिककी सिद्धिके लिये तथा शत्रुके घातके लिये जो निदान हो, सो चौथा आर्तध्यान है ॥ ३६॥ इन्द्रवज्रा। इत्थं चतुर्भिः प्रथितैर्विकल्पै रात समासादिह हि प्रणीतम् । अनन्तजीवाशयभेदभिन्न ब्रूते समग्रं यदि वीरनाथः ॥ ३७॥ अर्थ-इस प्रकार चार भेदोंके विस्तारसे इस शास्त्रमें आर्तध्यानका खरूप कहा और इस आर्तध्यानको जीवोंके आशयभेदसे भेदरूप कहा जाय तो वीरनाथ भगवान् ही कह सक्ते हैं अन्यकी सामर्थ्य नहीं है ॥ ३७॥ अपथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यग्निमक्षणे । विद्ध्यसद्ध्यानमेतद्धि षड्गुणस्थानभूमिकम् ॥ ३८॥ अर्थ हे आत्मन् ! यह आर्तध्यान प्रथम क्षणमें रमणीक है तथापि अन्तके क्षणमें अपथ्य है ऐसा इस अप्रशस्त ध्यानको जान, और यह ध्यान छट्टे गुणस्थानतक होता है, यहांतक ही इसके उत्पन्न होनेकी भूमि है ॥ ३८ ॥ संयतासंयतेष्वेतचतुर्भेदं प्रजायते। प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा ॥ ३९॥ अर्थ-यह आर्तध्यान संयतासंयतनामा पांचवें गुणस्थानपर्यन्त तो चार भेदरूप
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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