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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् · अर्थ--इस संसारमें रागरहित जीवके अज्ञानरूप विषम आग्रह शान्त हो जाता है और रागसे पीड़ितके वही अज्ञान बढता है घटता नहीं है ॥ १९ ॥ खभावजमनातवं वीतरागस्य यत्सुखम् । न तस्यानन्तभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरैः ॥ २०॥ । अर्थ-वभावसे उत्पन्न हुआ आतंकरहित जो सुख वीतरागके होता है उससे अनन्तवें भाग भी इन्द्रोकै नहीं होता । भावार्थ-निर्मलज्ञान और स्वाभाविक मुख थे दोनों वीतरागके ही होते हैं ॥ २० ॥ ____ एतावनादि संभूतौ रागद्वेषौ महाग्रही। . अनन्तदुःखसन्तानप्रसूतेः प्रथमाकुरौ ॥ २१ ।। अर्थ-ये अनादिसे उत्पन्न रागद्वेपरूपी महा पिशाच या ग्रह हैं सो अनन्तदुःखोंके सन्तानकी प्रसूतिके प्रथम अंकुर ही हैं । भावार्थ-दुःखकी परिपाटी इससे ही चलती ___ उक्तं च ग्रन्थान्तरे। रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते। जीवो जिनोपदेशोऽयं समासाद्वन्धमोक्षयोः ॥१॥ ' अर्थ-रागी जीव तो कर्मीको बांधता है और वीतरागी कर्मोसे छूटता है यह बंध और मोक्ष इन दोनोंका संक्षेप उपदेश जिनेन्द्र सर्वज्ञ भगवान् का है ॥१॥ इस कारण आचार्य महाराज कहते हैं कि तद्विवेच्य भुवं धीर ज्ञानार्कोलोकमाश्रय । विशुष्यति च यं प्राप्य रागकल्लोलमालिनी ॥२२॥ अर्थ-पूर्वोक्त अर्थका विचार करके हे धीरवीर । निश्चयसे ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशका आश्रय कर, क्योंकि जिसको प्राप्त होकर रागरूपी नदी सूक जाती है ॥ २२ ॥ चिदचिद्रूपभावेषु सूक्ष्मस्थूलेष्वपि क्षणम् । रागः स्याद्यदि वा द्वेषः क तदाध्यात्मनिश्चयः ॥ २३ ॥ अर्थ-सूक्ष्म तथा स्थूल चेतन अचेतन पदार्थोंमें क्षणभर भी राग अथवा द्वेष होता है तो फिर अध्यात्मका निश्चय कहां? ॥ २३ ॥ १ महासुरौ इत्यपि पाठः ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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