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________________ ज्ञानार्णवः । २३९ .दिक ऐसे प्रबल हैं कि वे मनमें विकार उत्पन्न करके बिगाड़ देते हैं, इस कारण प्रथमही रागादिकके दूर करनेका यत्न करना चाहिये निःशेषविषयोत्तीर्ण विकल्पव्रजवर्जितम् । स्वतत्त्वैकपरं धत्ते मनीषी नियतं मनः ॥ १ ॥ क्रियमाणमपि स्वस्थं मनः सद्योऽभिभूयते । अनाद्युत्पन्नसंबद्धै रागादिरिपुभिर्बलात् ॥ २ ॥ अर्थ-मनीषी (बुद्धिमान्) मुनि यदि अपने मनको समस्त विषयोंसे रहित और ज्ञेयोंमें भ्रम या संशयरूप विकल्पोंसे वर्जित, अपने खरूपमें ही एकाग्र तत्पर करै, तथापि आत्मस्वरूपके सन्मुख स्वस्थ किया हुआ मन भी अनादिकालसे उत्पन्न हुए वा बँधे हुए रागादि शत्रुओंसे जबरदस्ती पीडित किया जाता है । भावार्थ - मनको रागादिक शत्रु च्युत करके विकाररूप कर देते हैं ॥ १ ॥ २ ॥ स्वतत्त्वानुगतं चेतः करोति यदि संयमी । रागादयस्तथाप्येते क्षिपन्ति भ्रमसागरे ॥ ३ ॥ अर्थ - यद्यपि संयमी मुनि निजखरूपके अनुगत मनका जय करलेता है तथापि रागादिक भाव उसको फिर भी भ्रमरूपी समुद्रमें डाल देते हैं ॥ ३ ॥ आत्माधीनमपि स्वान्तं सद्यो रागैः कलङ्कयते । अस्ततन्द्रैरतः पूर्वमत्र यत्नो विधीयताम् ॥ ४ ॥ अर्थ — आचार्यमहाराज उपदेश करते हैं कि - अपने आधीन ( वश ) किया हुआ -- मन भी रागादिक भावोंसे तत्काल कलंकित ( मलिन ) किया जाता है, इस कारण मुनिगणोंका यह कर्तव्य है कि इस विषय में वे प्रमादरहित हो सबसे पहिले इन रागादिकके दूर करनेमें यत्न करें ॥ ४ ॥ अयनेनापि जायन्ते चित्तभूमौ शरीरिणाम् । रागादयः स्वभावोत्थज्ञानराज्याङ्गघातकाः ॥ ५ ॥ अर्थ — जीवोंके स्वाभाविक ज्ञानरूपी राज्यके अंगको घात करनेवाले रागादिक भाव चित्तरूपी पृथिवीमेंसे विना यत्नके ही स्वयमेव उत्पन्न होते हैं ॥ ५ ॥ इन्द्रियार्थानपाकृत्य स्वतत्त्वमवलम्बते । यदि योगी तथाप्येते छलयन्ति मुहुर्मनः ॥ ६ ॥ अर्थ - जो योगी मुनि इन्द्रियोंके विषयोंको दूर कर निजखरूपका अवलंबन करै तौ भी रागादिक भाव मनको बारंबार छलते हैं अर्थात् विकार उत्पन्न करते हैं ॥ ६ ॥ कचिन्मूढं कचिद्रान्तं कचिद्भीतं कचिद्रतम् । शङ्कितं च कचित्क्लिष्टं रागाद्यैः क्रियते मनः ॥ ७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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