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________________ २३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्रग्धरा । frees दैत्य aori त्रिदशपतिपुराण्यम्बुवाहान्तरालं atur भोधिप्रकाण्डं खचरनरसुराहीन्द्रवासं समग्रम् । एतत्रैलोक्यनीडं पवनचयचितं चापलेन क्षणार्डे नाश्रान्तं चित्तदैत्यो भ्रमति तनुमतां दुर्विचिन्त्यप्रभावः ॥३४॥ अर्थ - जीवोंके मनरूपी दैत्यका प्रभाव दुर्विचिन्त्य है । किसीके चिन्तवनमें नहीं आ सकता । क्योंकि यह अपनी चंचलताके प्रभावसे दशों दिशाओं में दैत्योंके समूहमें, इन्द्रके पुरोंमें, आकाशमें तथा द्वीपसमुद्रोंमें विद्याधर मनुष्य देव धरणी इन्द्रादिके निवासस्थानोंमें तथा चातवलयोंसहित तीन लोकरूपी घरमें सर्वत्र आधे क्षणमें ही भ्रमण कर आता है । इसका रोकना अतिशय कठिन है । जो योगीश्वर इसे रोकते हैं वे धन्य हैं ॥ ३४ ॥ मालिनी । प्रशमयमसमाधिध्यानविज्ञानहेतोविनयनयविवेकोदारचारित्रशुद्धयै । य इह जयति चेतः पन्नगं दुर्निवारं खलु जगति योगिव्रतवन्धो मुनीन्द्रः ॥ ३५ ॥ अर्थ - इस जगतमें जो मुनि प्रशम (कपायोंका अभाव ), यम ( त्याग ), समाधि (खरूपमें लय), ध्यान (एकाग्रचित्त), विज्ञानके ( विशिष्टज्ञानके) अर्थात् भेदज्ञानके लिये तथा विनय नयके ( खरूपकी प्राप्ति के ), विवेकके और उदारचरित्रकी शुद्धिके. लिये चित्तरूपी दुर्निवार सपकी जीतते हैं वे योगियोंके समूहकरके वंदनीय हैं और मुनियोंमें इन्द्र हैं ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मनके व्यापारका वर्णन किया । यहां अभिप्राय ऐसा है कि- मनको वश किये विना ध्यानकी सिद्धि नहीं होती और इसके वश करनेसे सर्व सिद्धि होती है । दोहा । पवनवे गहू प्रबल, मन भरमै सब ठौर । याको वश करि निज रमैं, ते मुनि सब शिरमौर ॥ २२ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे मनोव्यापारप्रतिपादनखरूपं द्वाविंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ २२ ॥ अथ त्रयोविंशं प्रकरणम् । अब ऐसा कहते हैं कि-यदि मनके व्यापारको संकोचकर एकाग्र भी करै तौ रागा
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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